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महर्षि पाणिनि – संस्कृत व्याकरण का इतिहास

महर्षि पाणिनि संस्कृत व्याकरण का इतिहास

संस्कृत व्याकरण की परम्परा

संस्कृत व्याकरण की परम्परा अत्यन्त सुदीर्घ है। वैदिक काल में ही संस्कृत व्याकरण एक स्वतंत्र वेदाङ्ग के रूप में स्थापित हो चुका था। वेदों की रचना और भाषा सौष्ठव के आधार पर यह कहना सर्वथा युक्तिसंगत है कि वेदमन्त्रों के रचनाकाल में अवश्य ही व्याकरण का अध्ययन प्रारम्भ हो चुका था। ब्राह्मणग्रन्थों में स्पष्ट ही व्याकरण सम्बन्धी अनेक शब्दों का उल्लेख हुआ है। प्रातिशाख्य ग्रन्थ भी व्याकरण सम्बन्धी अध्ययन की ही देन है। अनेक सूत्र जो पाणिनि के व्याकरण में आज उपलब्ध हैं ज्यों कि त्यों प्रातिशाख्यों में उपलब्ध हैं। प्रातिशाख्यों के कुछ सूत्र पाणिनि के व्याकरण में कुछ परिवर्तन के साथ मिलते हैं।

 

यास्क के निरुक्त में भी अनेक वैयाकरणों के नामों का उल्लेख है। अनेक स्थलों पर वैयाकरणों के मत को उद्घत किया गया है जिससे स्पष्ट है कि यास्क के काल से पहले ही व्याकरणशास्त्र का प्रारम्भ हो चुका था।

 

पाणिनि से पूर्ववर्ती वैयाकरण

पाणिनि से पूर्ववर्ती वैयाकरणों में प्रारम्भिक नाम देवताओं के हैं। ऋक्तन्त्र के अनुसर व्याकरणशास्त्र का प्रथम प्रवक्ता ब्रह्मणा था । ब्रह्मा ने बहस्पति को व्याकरण का ज्ञान दिया। बहस्पति ने इन्द्र को तथा इन्द्र ने भारद्वाज को व्याकरण शास्त्र का उपदेश किया। भारद्वाज ने अन्य ऋषियों को और ऋषियों ने अन्य ब्राह्मणों को व्याकरण का ज्ञान दिया। महाभाष्यकार पतजलि ने भी उल्लेख किया है कि बहस्पति ने इन्द्र को एक एक पद का उपदेश करके शब्दपारायण नामक ग्रन्थ को पढ़ाया था परन्तु वह उसे पूरा नहीं पढ़ा सका था। इन्द्र के विषय में भी तैत्तिरीय संहिता में उल्लेख आता है कि उसने शशब्दों को पथक्-पथक खण्डों में विभाजित करके देवताओं को समझाया था

 

वाग्वै पराच्यव्याकृतावदत्, ते देवा इन्द्रमब्रुवन् इमां नो वाचं व्याकुर्विति। सोब्रवीत्-वरं वणै मह्यं चैवैष वायवे च सह गह्यातां इति तस्मादैन्द्रवायवः सह गह्याते। तामिन्द्रो मध्यतोवक्रम्य व्याकरोत् । तस्मादियं व्याकृता वागुच्यते। (तै. सं. 64.7.3) 1

 

पं. युधिष्ठिर मीमांसक ने अपने संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास नामक ग्रंथ में ऐन्द्र व्याकरण के निम्नलिखित तीन सूत्रों का संकलन किया है

 

1. अथ वर्णसमूहः

2. अर्थः पदम्

3. अन्त्यवर्ण समुद्भूता धातवः परिकीर्तिताः ।


इंद्र का संस्कृत व्याकरण

इन्द्र का व्याकरण बहुत बड़ा था इसकी सूचना हमें महाभारत के टीकाकार देवबोध के इस श्लोक से मिलती है।

 

यान्युज्जहार माहेन्द्रात् व्यासो व्याकरणार्णवात् ।

पदरत्नानि किं तानि सन्ति पाणिनिगोष्पदे ।।

अर्थात् व्यासमुनि ने जिन पदों का प्रयोग किया है वे ऐन्द्र व्याकरण में हैं। वे पाणिनि के व्याकरण में नहीं है। इसमें ऐन्द्र व्याकरण को समुद्र कहा है तो उसकी तुलना में पाणिनि व्याकरण को एक गाय के खुर के समान छोटा बताया है। देवबोध की यह अत्युक्ति हो सकती हैं परन्तु इससे एक बात तो स्पष्ट है कि पाणिनि से पूर्व ऐन्द्र व्याकरण था जो विशालकाय था ।

 

दिव्य वैयाकरणों में महेश्वर का नाम भी आता है। महेश्वर शिव का ही नाम है। महेश्वर द्वारा व्याकरण निर्माण का संकेत महाभारत में शान्तिवर्ष के शिवसहस्रनाम स्तोत्र में मिलता है। पाणिनीय शिक्षा में महेश्वर का वैयाकरण के रूप में स्पष्ट उल्लेख मिलता है। पाणिनि को नमस्कार करते समय ग्रन्थकार ने सूचना दी है कि पाणिनि ने अक्षरसमाम्नाय (प्रत्याहार सूत्रों) को महेश्वर से प्राप्त किया

 

येनाक्षरसमाम्नायमधिगम्य महेश्वरात्।

कृत्स्नं व्याकरणं प्रोक्तं तस्मै पाणिनये नमः ।।

अर्थात् जिस पाणिनि ने महेश्वर से अक्षरसमाम्नाय को ग्रहण करके सम्पूर्ण व्याकरण शास्त्र लिखा उस पाणिनि को नमस्कार है। नन्दिकेशरकृत काशिका नामक ग्रन्थ में भी इसी बात को कहा गया है

 

नत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपचवारम्

उद्धर्तुकामः सनकादिसिद्धानेतद् विमर्शे शिवसूत्रजालम् ।।

इस श्लोक के अनुसार सनकादि मुनियों के उद्धार के लिए नटराज शिव ने 14 बार डमरू बजाया जिससे ये 14 माहेश्वर सूत्र निकले। पाणिनि के 14 प्रत्याहार सूत्र माहेश्वर सूत्र नाम से भी प्रसिद्ध हैं। ब्रह्मा, बहस्पति, इन्द्र तथा महेश्वर से अतिरिक्त वायु, भारद्वाज, चन्द्र (ये वर्तमान चन्द्रगोमी से भिन्न हैं), यम, रुद्र, वरुण, सोम तथा विष्णु द्वारा भी व्याकरण शास्त्र के प्रणयन का संकेत मिलता है।

 

आज के वैज्ञानिक युग के लोगों के लिए यह विश्वसनीय नहीं है कि उपर्युक्त देवलोकवासी आचार्यों द्वारा व्याकरणशास्त्र ऐहलौकिक व्याकरण शास्त्र का प्रणयन किया गया था। किन्तु प्राचीन ग्रंथों के प्रमाण तो उक्त आचार्यों की पारलौकिकता का ही समर्थन करते हैं। ऐसी विषम परिस्थिति में जब उक्त आचार्यों के व्यक्तित्व का भी निर्धारण कठिन है तो फिर उनके

 

काल आदि का निर्णय करना कैसे सम्भव हो सकेगा? इस सन्देह के समर्थन में पाणिनि जैसे सर्वतोभद्र वैयाकरण का ब्रह्मा, बहस्पति आदि के विषय में मौनावलम्बन का भी योगदान उपेक्षणीय नहीं है। इतना होने पर भी इन्द्र के ऐतिहासिकत्व का खण्डन नहीं किया जा सकता।

 

संस्कृत व्याकरण का इतिहास में आचार्य निस्सन्दिग्ध रूप में ऐतिहासिक हैं उन्हें हम प्रथमतः दो वर्गों में विभक्त कर सकते हैं:

 

1. पाणिनि से पूर्ववर्ती

2. पाणिनि से उत्तरवर्ती

 

प्रथम वर्ग के आचार्यों को भी पाणिनि के संकेत के आधार पर दो उपवर्गों में बाँटा जा सकता है

 

1. पाणिनि द्वारा अनुल्लिखित,

2. पाणिनि द्वारा उल्लिखित ।

 

प्रथम वर्ग के प्रथम उपवर्ग में निम्नलिखित आचार्यों का समावेश है:

( 1 ) इन्द्र

(2) भागुरि

(3) पौष्करसादि

(4) चारायण

( 5 ) काशकृत्स्न

(6) वैयाघ्रपद

(7) माध्यन्दिनि

(8) रौढि

(9) शौनक

( 10 ) गौतम तथा

(11) व्याडि

प्रथम वर्ग के प्रथम उपवर्ग में निम्नलिखित आचार्यों का समावेश है:

इस वर्ग के द्वितीय उपवर्ग में निम्न निर्दिष्ट आचार्यों की गणना है

(1) आपिशलि

(2) काश्यप

(3) गार्ग्य

(4) गालव

(5) चाक्रवर्मण

(7) शाकटायन

(8) शाकल्य

(9) सेनक

(10) स्फोटायन

द्वितीय उपवर्ग में निम्न निर्दिष्ट आचार्यों की गणना

महर्षि पाणिनि

(क) पाणिनि के नाम:

अष्टाध्यायीके निर्माता महिर्ष पाणिनि के निम्नलिखित नाम उपलब्ध होते हैं-

 

(1) पाणिन

 

(2) पाणिनि

 

(3) दाक्षीपुत्र

 

(4) शालङ्कि,

 

(5) शालातुरीय अथवा सालातुरीय तथा

 

(6) आहिक इनसे अतिरिक्त पं. शिवदत्त शर्मा जी

 

द्वारा महाभाष्य के प्रथम भाग की प्रस्तावना में उद्धृत केशवीय नान र्थार्णवपसंक्षेप के वाक्य से मातुरीय (?) तथा दाक्षेय नाम भी पाणिनि के प्रतीत होते हैं। पाणिनीय शिक्षा के याजुष पाठ में पाणिनेय तथा सोमेश्वर तथा सोमेश्वर के

 

यशस्तिलकचम्पूमें पणिपुत्र शशब्द का भी प्रयोग मिलता है।

 

(ख) पाणिनि का वंशः

पाणिनि के वंश के विषय में बहुत वाद-विवाद चिरकाल से प्रचलित हैं। किन्तु उपर्युक्त प्रमाण के पर निम्नलिखित वंशावली का संकेत मिलता है। यह वंशावली म. म. शिवदत्त शर्मा जी की है। परन्तु मीमांसक जी निम्नलिखित वंशावली के पक्ष में हैं

 

 

मीमांसक जी निम्नलिखित वंशावली

मीमासक जी की दृष्टि में दाक्षि तथा दाक्षायण एक ही अर्थ के प्रतिपादक हैं।

 

उपर्युक्त वंशावली तो मातपक्ष की है। आचार्य पाणिनि के पिता के विषय में म. म. पं. शिवदत्त शर्मा जी का मत है कि पाणिनि शलङ्क के पुत्र थे । इसका आधार पाणिनि के नामान्तर शालङ्किश्शब्द की व्युत्पत्ति है- शलङ्कोरपत्यं शालङ्किः। कैयट, हरदत्त तथा गणरत्नमहोदधिकार वर्धमान भी शालङ्कि शब्द को शलङ्क श्शब्द से ही निष्पन्न मानते हैं। मीमांसक जी ने अपने संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास के प्रथम भाग में शलङ्क को माना है, परन्तु प्रायः इसका कारण दष्टिदोष है, क्योंकि महाभाष्य की प्रस्तावना में शलङ्क शब्द का ही उल्लेख मिलता है। अन्यत्र पिङगल को पाणिनि का अनुज बतलाया गया है।

 

(ग) पाणिनि का निवास स्थानः

अष्टाधायी के उदक च विपाशः तथा वाहीकग्रामेभ्यश्च सूत्रों के महाभाष्यके प्रामाण्य पर ऐसा सिद्ध होता है कि पाणिनि वाहीक देश से विशेष परिचित थे। इस जाति का देश वर्तमान बलख है। ऐसा कहा जाता है कि वाहीकलोक पंजाब के उस प्रदेश में रहते थे जिसे सिन्धु नदी तथा पंजाब (पंचनद) की अन्य पाँच नदियाँ सींचती थी। परन्तु यह क्षेत्र भारत के पुण्यक्षेत्र से बाहर था। घोड़ों तथा हींग के लिए इसकी प्रसिद्धि थी। अतः वाहीकग्रामश्शब्दों में षष्ठीतत्पुरुष समास माना चाहिए।

 

वाहीकदेश से विशेष परिचित होने के कारण पाणिनि के देश के विषय में यह सम्भावना है कि वाहीक देश या तत्समीपस्थ कोई प्रदेश पाणिनि का जन्मस्थान रहा होगा।

 

यद्यपि पाणिनि का नाम शालातुरीयअथवा सालातुरीयभी होने के कारण यह प्रतीत होता है कि पाणिनि का देश शलातुर या सलातुर था। यह शलातुरया सलातुर अटक के समीपस्थ वर्तमान लाहौर ही है- ऐसा पुरातत्ववेत्ताओं का

 

मत है। किन्तु पाणिनि ने तूदीशलातुरवर्मती सूत्र में शलातुर शशब्द का पाठ किया है। जिससे यह सिद्ध होता है कि शालातुरीयउसे ही कहा जा सकता है जिसका अभिजन, अर्थात् पूर्वजों का निवासस्थान, ‘शलातुर हो । अतः पाणिनि का जन्मस्थान शलातुर को मानना उचित नहीं है।

 

(घ) पाणिनि के आचार्यः

पाणिनि के आचार्य के विषय में परम्परागत मत तो यही है कि पाणिनि ने गोपर्वत पर तपस्या करके साक्षत् महेश्वर शिव से ही अक्षरसमाम्नाय का उपदेश प्राप्त किया था। इसी अक्षरसमाम्नाय को आधार बनाकर पाणिनि ने अष्टाधयायीका निर्माण किया था । कथासरित्सागरमें उपवर्ष के अग्रज वर्ष उपाध्याय को पाणिनि का गुरु माना गया है। जयरथ के हरचरितचिन्तामणिके अवलोकन से भी यहीं ज्ञात होता है कि प्रारम्भ में वर्षोपाध्याय के शिष्य होने पर भी जब पाणिनि अपनी जडता के कारण उनसे कुछ सीख न सके तब उन्होंने अपनी जडता को दूर करने के लिए हिमालय पर्वत पर जाकर भगवान शंकर की तपस्या की और वहीं भगवान् शंकर ने उन्हें व्याकरणशास्त्र का उपदेश दिया। परन्तु इसमें भी पूर्वोक्त स्कन्दपुराण के कथन गोपवर्त पर पाणिनि ने शङ्कर की आराधना की थी- से कुछ भिन्नता अवश्य है। गोपवर्त तथ हिमालय की एकता में कोई प्रमाण नहीं मिल रहा है।

 

पाणिनि की शिष्यपरम्पराः पाणिनि के शिष्यों में सर्वप्रथम कात्यायन वररुचि का नाम आता है। यह तथ्य संख्या वंश्येन सूत्र के ऊपर लघुश्शब्देन्दुशेखरकार नागेश की व्याख्या से ध्वनित होता है- ऐसा मीमांसक जी भी मानते हैं। हरचरितचिन्तामणिका मत कुछ भिन्न ही है वहाँ कहा गया है कि जब पाणिनि शंकर की कृपा से व्याकरणशास्त्र का पाण्डित्य पाकर लौटे तो उन्होंने वररुचि आदि अपने सतीयों का उपहास करना शुरू कर दिया उस पर क्रुद्ध वररुचि का सात दिनों तक पाणिनि से शास्त्रार्थ चलता रहा और अन्त में आठवें दिन पाणिनि परास्तप्राय हो गए थे। वैसा देख कर भगवान् शङ्र ने हुंक की आकाशवाणी की और उसके बल से पाणिनि ने पुनः वररुचि के ऊपर विजय प्राप्त कर ली। तत्पश्चात् खिन्न होकर वररुचि हिमालय की गुफा में शङ्कर की आराधना के लिए चले गए और वहाँ शङ्की को

 

प्रसन्न कर उनसे पुनः पाणिनि के लिए प्राप्त व्याकरण शास्त्र का अधिगम किया। महाभाष्यमें एक एदाहरण मिलता है- उपसेदिवान् कौत्सः पाणिनिम् काशिकामें भी अनूषिवान् कौत्सः पाणिनिम्आदि उदाहरण उपलब्ध होते हैं। इन उदाहरणों से यह सिद्ध होता है कि पाणिनि के शिष्यों में कौत्स भी अन्यतम थे। भारतीय वाङ्मय में अनेक ग्रन्थों में उल्लिखित कौत्स से भेद या अभेद का निर्णय करना कुछ कठिन है। किन्तु निरुक्ततथा

 

रघुवंशमें उल्लेखित कौत्स को पाणिनिशिष्य कौत्स से भिन्न मानना ही उचित प्रतीत होता है। यद्यपि महाभाष्य’ 1.4.41 के उल्लेख से तथा काशिका’ 6.2.104 के उदाहरण से पाणिनि के अनेक शिष्यों का निश्चय

 

करना ही पड़ता है तथापि कौत्स से अतिरिक्त किसी शिष्य का नाम अब तक उपलब्ध नहीं हो सका है।

 

(च) पाणिनि का कालः पाणिनि के काल के विषय में चिरकाल से प्राच्य तथा पाश्चात्य विद्वानों में वैमत्य बना हुआ है। गैरोला महाशय ने कुछ प्रसिद्ध प्राच्य एवम् पाश्चात्य विद्वानों के मतों का संकलन निम्नलिखित रूप में किया है।

 

 

पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने अनेक अन्तरङ्ग बहिरङ्ग प्रमाणों के आधार पर यह निर्णय किया है कि पाणिनि का समय स्थूलतया विक्रम से 2100 वर्ष प्राचीन है।

 

पाणिनि का काल 700 ई. पूर्व से 600 ई. पू. के मध्य में अधिकांश विद्वान मानते हैं। डा. वासुदेवशरण अग्रवाल पाँचवीं शतशब्दी ई. पू. का मध्य भाग मानते हैं।