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पोषक तत्वों के आयुर्वेदिक स्रोत - Ayurvedic Sources of Nutrients

 पोषक तत्वों के आयुर्वेदिक स्रोत


आयुर्वेद के अनुसार भोजन मात्र प्रोटीन, विटामिन, वसा तथा कार्बोहाइड्रेट का मिश्रण नहीं है बल्कि यह एक ऐसा द्रव्य है जो शरीर के साथ ही साथ मस्तिष्क व आत्मा को भी ऊर्जा प्रदान करता है। भोजन ग्रहण करने के पश्चात् भोजन का आत्र में पायन होता है तथा पाचन के पश्चात् आहार रस से धातुओं का पोषण होता है तथा समस्त धातुओं के सार भाग आज का निर्माण होता है।


आज भोजन के पाचन के पश्चात् बना अन्तिम परिसंस्कृत भाग है जो शरीर की सातों धातुओं का उत्कृष्ट सार भाग है भोजन का ठीक प्रकार से पाचन न होने के कारण जो अर्धपक्क पदार्थ विष के समान गुणधर्म वाला होता है, जो शरीर में तरह-तरह के विकार पैदा करता है तथा शरीर को पुष्ट करने के काम नहीं आता क्योंकि हितकर आहार से शरीर की पुष्टि होती है तथा अहितकर आहार से शरीर रोग ग्रस्त हो जाता है "आहारसंभव वस्तु रोगाश्रवादार समया हिताहित विशेषान्न विशेष सुखदुःखयो (भरका 28/45)


आयुर्वेद मतानुसार चुना गया तथा खाने योग्य तैयार कर अष्ट आहार विध विशेष यतनों (प्रकृति, करण, संयोग, राशि देश, काल उपयोग संस्था एवं उपयोक्ता की पालना के साथ आहार ग्रहण करने पर उसके पाचन से बना आहार रस शरीर की रागी भातुओं को पुष्ट कर शरीर को ऊर्जावान व आजयुक्त बनाता


आयुर्वेद मतानुसार हमारे शरीर की आहार की आवश्यकता व्यक्ति की प्रकृति पर निर्भर करती है किसी व्यक्ति का आहार उस व्यक्ति की प्रकृति व (उम्र) तथा लिंग पर भी निर्भर करता है। मौसम के अनुसार भी आहार में बदलाय


लाया जाता है। आहार में बदलाव का निर्धारण आयुर्वेदिक चिकित्सक द्वारा विशेष की प्रवृति आदि का निर्धारण कर किया जाता है। उचित आहार घटकों को चयन के साथ ही साथ आहार पाक की विधि तथा आहार ग्रहण की दिधियों द आहार ग्रहण काल का भी निर्धारण किया जाता है कि किस चीज के अनुपात आहार का सम्यक पाक होकर वह शरीर की पुष्टि कर सके। खाये गये आहार का सम्यक् पाचन हो सके इसके लिए आहार की मात्रा का भी निर्धारण होना चाहिए। मात्रा पूर्वक खाया गया अन्म शरीर के लिए सभी प्रकार से हितकर होता है। आहार की जो मात्रा भोजन करने वाले की प्रकृति में बाधा न पहुंचाते हुए गया समय प जाये वही व्यक्ति के लिए प्रमाणित मात्रा होती है, यथा समय से अभिप्राय है द्वितीय भोजन काल में भूख लगना तथा भोजन के प्रति रूचि का होना


आयुर्वेदिक भोज्य पदार्थों का वर्गीकरण


संहिता में सुश्रुत परक संहिता से अधिक विस्तार पूर्वक आहार दस्यों का वर्गीकरण किया है।


चरक संहिता के अनुसार भोज्य पदार्थों का वर्गीकरण निम्न प्रकार है


1. शुकधान्य (गेहूँ, चावल आदि)


2. शमीमा दाले


4. शाक (वनस्पतियों


6. हरित (सुरसादि म


7 गोरस (दुम्प एवं दुध से बने पदार्थ)


8. मध


9 अम्बु (जल)


10 इक्षु

11 कुतान्न



आचार्य सुश्रुत ने भोज्य पदार्थों को 21 वर्गों में विभाजित किया है, जो निम्नवत है -


1. अम्बुर्ग


2. क्षीर वर्ग (दुग्ध)


4. वर्ग मा


5. घृत वर्ग ( घृत एवं मक्खन )


6 तैल वर्ग


7. मधु


8. इक्षु


9. मद्य


10. सालि वर्ग


11. धान्य


12 मुदग वर्ग (दालें)


14 फल


15. शाक (वनस्पतियों


17. लंबण


18. कृतान्न


19. भक्ष्य (मीठे पदार्थ)


20 पनक ( पेय पदार्थ)


21. टनुपान



भोज्य पदार्थों के इन सभी वर्गों के घटकों से संतुलित आहार का निर्माण होता है। चावल, गेहूं आदि से कार्बोहाइड्रेट दालो दूध से बने पदार्थों से प्रोटीन भी मन आदि से पता तथा वनस्पतियों तथा फलों से जीवनीय एवं खनिज (Vitamins and minerals)


आयुर्वेद में पोषण का सिद्धान्त


समस्त भोज्य पदार्थों को उनके मुख्य रस के अनुसार छ वर्गों में विभाजित किया गया है. ये इस प्रकार है मधुर अम्ल लवण कटु विक्त और कथाय आयुर्वेद मतानुसार हमें अपने हर बार के मुख्य भोजन में प्रत्येक प्रकार के रस युक्त भोजन को सम्मिलित करना चाहिए। प्रत्येक रस में भोजन के पूर्ण पाचन का गुण होता है। शरीर को आवश्यक समस्त पोषक द्रव्यों की प्राप्ति होती है संहिता के अनुसार मनुष्य को सर्व रसो (छ: रस) का अभ्यास करना चाहिए इससे शरीर में बल की प्राप्ति होती है।


पूर्ण और संतुलित आहार के लिए यह आवश्यक है प्रत्येक रस वाले पदार्थों को हम अपने भोजन में शामिल करें। उदाहरणार्थ वनस्पतियों और फलों में मधुर रस के लिए गाजर अम्ल रस हेतु नींबू संतरा एवं अन्य सभी फल तिक्त एस के लिए करेला कटु एवं आँवला आदि का सेवन करना चाहिए। आमलकी रसायन जो कि आँचल से निर्मित होता है उसमें लवण के अतिरिक्त शेष पाँची उपस्थित होते हैं, अत: आँवले का उपयोग फल, स्वरस चूर्ण एवं अन्य औषधीय रूप में किया


मधुर रस के सेवन से शरीर के भार में वृद्धि होती है यह शरीर में जल को मात्रा (त्वचा में नमी) को बढ़ाता है। यह शरीर की प्राओं को पुष्ट करने में सर्वश्रेष्ठ है मधुर रस के सेवन से मुख में लार की वृद्धि होती है प्यास शान्त होती है तथा त्वचा स्वर व बालों में भी अच्छे लाभकारी प्रभाव होते है। यह शरीर का सर्पण करता है।


अम्ल रस से शरीर की पाचन क्रिया सुदृढ़ होती है इससे रसों का शरीर में संचरण भी बढ़ जाता है। शरीर तथा हृदय को बल मिलता है, इससे ज्ञानेन्द्रियों को बल मिलता है, तथा खनिज द्रव्यों के शरीर से उपार्जन में भी सहयोग मिलता है। अम्ल रस शरीर की सभी धातु को पुष्ट करने में सहायक है।


लवण रस से भोजन के स्थान में बढ़ोत्तरी होती है इससे भोजन का पाचन अच्छा होता है, ऊतकों तथा त्वचा में स्निग्धता आती है, शरीर में खनिजदयों की मात्रा नियमित होती है तथा तांत्रिका तंत्र मजबूत होता है क्योंकि इसमें पानी को आकर्षित करने का गुण होता है इससे दया में चमक आती है तथा शरीर का सम्पूर्ण विकास होता है। कटु रस से पाचन में सुधान आता है इससे सायनस का शुद्धिकरण होता है। शरीर की उपापचय कियाए बढ़कर शरीर से वायु का निस्तारण ठीक से होता है क् परिसंचरण बढ़कर मांसपेशियों की पीड़ा में आराम आता है।


विका रस से शरीर की रायों के बालयों एवं पाचन ग्रन्थियों के साथ बढ़ने से भूख अधिक लगती है तथा खाये गये आहार का ठीक से पाचन होता है। भूख अधिक लगती है तथा साथ ही भोजन के स्वाद में बढ़ोत्तरी होती है। यह जीवाणु नाशक, जन्तुष्न तथा जीवन गुण वाला है। यह शरीर का वनज कम करने विकार वर तथा मिचली को कम करता है।


काय र तिक्त रस से कम शीत गुण वाला होने पर भी शरीर पर शीत प्रभाव दिखाता है। इसके सेवन से मुँह में सूखापन तथा जीन के उपर एक परत जैसी अनुभूति होती है। विभिन्न प्रकार के भोजन से दोषों का संतुलन आयुर्वेद में मोय पदार्थों के भौतिक गुणों के अनुसार भी इसको वर्गीकृत किया जाता है जैसे लघु या गुरु शुष्क या स्निग्ध उष्ण या शीत आदि भोजन के यह गुण शरीर में अलग-अलग दोषों को नियमित करते हैं। एक संतुलन भोजन में प्रत्येक गुण कोई न कोई नोग्य पदार्थ अवश्य शामिल होते हैं, व्यक्ति के शरीर की बनावट तथा उसकी प्रकृति के अनुसार किसी विशेष गुण वाले पदार्थ को कम या अधिक मात्रा में उसके भोयन में शामिल किया जाता है। उदाहरणार्थ वात दोष को साम्यावस्था में रखने के लिए मधुर, स्निग्ध उष्ण भोजन को प्रयुक्त करना चाहिए। पित्त को साम्य करने के लिए मधुर, शीत, तिक्त दव्य व कफ को साम्यावस्था में लाने के लिए कटु काय लघु शुष्क तथा उष्ण भोजन का सेवन कराया जाता है। अगर हम शीत प्रधान जलवायु वाले प्रदेश में रह रहे हो तो हमें अपने भोजन में करना चाहिए। इसी प्रकार शीत ऋतु में ज्यादातर लोगों के शरीर में रोगों के बढ़ने की प्रवृत्ति होती है अतः भोजन में गर्म शाक यूस (सूप) वाले तथा कुछ प्राण प्रकृति वाले पदार्थों को दूध से बने पदार्थों का सेवन करने से शरीर में बात वृद्धि को रोक सकते हैं। इसी प्रकार ग्रीष्म ऋतु में भोजन में शीत पदार्थों, लस्सी, दही, मट्ठा, रसीले फल जैसे नींबू, तरबूज, खरबूज आदि के सेवन से शरीर में पिता को बढ़ने से रोका जा सकता है।











विटामिन तथा खजिन द्रव्यों के प्राकृतिक स्रोत


आयुर्वेद मतानुसार व्यक्ति अपने रोजमर्स में लिए जाने वाले भोजन से ही विटामिन तथा खनिज द्रव्यों को ग्रहण कर सकता है। अतः हमें विटामिन ए खनिज द्रव्यों सोतों को जानकर उसके अनुरूप पोषक तत्वों को अपने भोजन में शामिल करना चाहिए। हमारे भोजन में अधिक से अधिक मात्रा में सभी प्रकार की सब्जियाँ, फल, मेवे तथा अनाज शामिल होने चाहिए। जैसे कि पौधों के द्वारा विटामिन डी का निर्माण नहीं हो पाता है किन्तु जान्तव द्रव्यों से विटामिन डी प्राप्त किया जा सकता है, मछली तथा दूध से विटामिन डी प्राप्त होता है। मनुष्यों को सूर्य की पराबैंगनी किरणों के माध्यम से विटामिन डी का निर्माण करती है।


विटामिनों के विभिन्न प्राकृतिक स्रोत


1. विटामिन ए विटामिन ए को रेटिनोल भी कहते है यह अच्छी दृष्टि चमकदार त्वचा के लिए फायदेमंद है। विटामिन ए के अच्छे स्रोत है सेब गाजर मूली कद, बोकली, जी शलजम, आडू गेहूँ, मक्कर, आम, संतरा, शकरकवी आदि जान्तय द्रव्यों में अण्डा दूध एवं मास (यकृत) में प्रचुर मात्रा में मिलता है। विटामिन ए नष्ट हो जाता है।


2. विटामिन बी विटामिन बी इसे थायमिन भी कहते हैं साबुत अनाज सोयाबीन, फलियों मे लीवर से विटामिन बी के अच्छे स्रोत है।


3. विटामिन बी इसे राइबोफ्लेविन भी कहते हैं। बोकली अनाज, पालक शतावरी तथा अण्डा दूध विटामिन बी के अच्छे स्रोत है।


4. विटामिन बी इसे नियासिन भी कहते है। पालक हरी सब्जियाँ बायलों की


भूसी आलू, टमाटर, दूध, अण्डा आदि विटामिन बी-3 के अच्छे स्रोत है।


5. विटामिन बी6 इसे पायरीडाक्सिन भी कहते हैं। यह अनाजों मेवी, फलियों अण्डे का पीला भाग, दूरचित मटन में पाया जाता है।


6. विटामिन बी 12- इसे सायनोकोबालेमिन भी कहते हैं। यह मुख्यतया गाय का दूध किडनी लीवर सालमन मछली में पाया जाता है। यह पेड़ पौधों में प्राय: नहीं पाया जाता।


7. विटामिन सी इसे एसकोर्बिक एसिद्ध भी कहते है। अमरूद, संतरा, बोकली, आँवला, नीबू गोभी, अनानास, स्ट्राबेरी, ता] सभी फल विटामिन सी के प्राकृतिक स्रोत है जवले में उपस्थित विटामिन सी पकाने पर भी नष्ट होता है।



2. विटामिन ई इसे टोकोफसल भी कहते हैं। यह हरी सब्जियाँ, सोयाबीन, सूरजमुखी के बीज अंकुरित धान्य में पाया जाता है। इसके अतिरिक्त प मछली तथा कौड लीवर के तेल में यह पाया जाता है।


10. विटामिन के इसका शरीर में स्वंय भी निर्माण होता है। इसके अतिरिक्त वह हरी सब्जियां, जैसे सताय पल्ला लागोभी, पालक, फूलगोगी तथा दालों में भी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है।


11. खनिज द्रव्यों के स्रोत शरीर के उचित तथा सम्पूर्ण विकास के लिए विटामिन के साथ ही साथ कुछ खनिजों की भी आवश्यकता होती है। शरीर को कुछ व्य बहुत खनिज द्रव्यों की भी आवश्यकता होती है। शरीर को कुछ दव्य बहुत कम मात्रा तथा कुछ दव्य अधिक मात्रा में चाहिए होते हैं। नीचे कुछ प्रमुख खनिज (जो शरीर के लिए आवश्यक है तथा उनके स्रोत वर्णित है कैल्शियम यह मजबूतड़यो, दातो तथा त्रिका तंत्र के लिए आवश्यक है। यह दूध पदार्थ, पत्तागोभी बोली सालमन मछली तथा अन्य समुद्री भोजन से मिलता है।


फ्लोराइड हदाँतों को मजबूती प्रदान करता है तथा दाँतों को सड़ने से रोकता है। यह समुद्री जीवों के मांस में पाया जाता है।


आयरन (लोह) यह रक्त के मुख्य अंश हीमोग्लोबिन का निर्माण करता है। यहां पालक, टमाटर, बोकली. हरी सब्जियों हरा धनियाँ, बथुवा, सिप में प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। आयोडीन यह थायराइड हार्मोन का एक अंश है जो व्यक्ति विशेष के विकास को नियमित करता है। आयोडीन समुद्री भोजन तथा समुद्री नमक में भी पाया जाता है। दूध तथा गेहूँ में भी सूक्ष्म मात्रा में पाया जाता है। फास्फोरस यह शरीर की कोशिका तथा ऊतकों के निर्माण में सहायक होता है। यह होतो तथा शरीर की अम्लीयता या क्षारीयता को बनाये रखने में सहायक है। यह दूध, अनाज मछली तथा मीट से मिलता है।


मैगनीशियम यह स्वस्थयों तो तांत्रिका तंत्र तथा उचित उपापचय के लिए आवश्यक है। यह हरी सब्जियों, फलियो मछली मुर्गा तथा मीट से मिलता है। किसी भी एक प्रकार के भोजन से अथवा सब्जी या फल से सभी विटामिन या खनिज प्राप्त नहीं किये जा सकते अंत स्वस्थ शरीर के निर्माण के लिए हमे अपने भोजन में सभी प्रकार के फलों, अनाज, मेवे तथा सब्जियों को शामिल करना चाहिए शाकाहारी लोगों को अधिक मात्रा में दालों तथा हरे मटर का सेवन करना



चाहिए जिससे उचित मात्रा में प्रोटीन मिल सके उचित मात्रा में सभी पोषक तत्वों को ग्रहण करने से शरीर स्वस्थ व पुष्ट होता है।


रसायन चिकित्सा


रसायन चिकित्सा आयुर्वेद के आठ अंगों में से एक है जिसमें तरह-तरह के उपाय बताए गये हैं जिससे कि शरीर स्वस्थ बना रहे अष्टांग आयुर्वेद की इस शाखा का उद्देश्य लम्बी तथा स्वस्थ आयु प्राप्त करना है। इसमें दीर्घायु तीव्र स्मरण शक्ति स्वास्थ्य युवावस्था चेहरे पर तेज बलिष्ठ शरीर तथा श्रेष्ठ ज्ञानेन्द्रियों शामिल है। रसायन का सेवन करने से उपापचय की कियाएं तीव्र गति से होती है। जिससे शरीर में जैविक बदलाव आते हैं। जरा चिकित्सा या रसायन चिकित्सा ऐसी चिकित्सा है जिससे बीमार व्यक्ति तो स्वस्थ होता है साथ ही साथ स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य में और लाभ होकर वह और तेजस्वी तथा दीर्घायु होता है। रसायन राज्ज्ञेय यज्यारा प्याधि गाशनम् शम्सेवर आयुर्वेद का मूल सिद्धान्त है स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य का संरक्षण तथा आतुर (रोगी) व्यक्ति के रोग का दामन रसायन चिकित्सा से आयुर्वेद के इसी सिद्धान्त को पूर्ण किया जाता है। वृद्धावस्था के कारण शरीर में जो टूट-फूट होती है रसायन के सेवन से उसे सामान्य कर शरीर के बल में वृद्धि की जाती है। इससे शरीर की कोशिकाएं पुनर्जीवित होती है तथा रोगी में युवावस्था के लक्षण दिखाई देते है। रसायन सेवन से व्यक्ति का मानसिक, शारीरिक बौद्धिक सभी तरह का विकास होता है। सावन के सेवन से शरीर में वृद्धावस्था के लक्षण शीघ्र प्रकट नहीं हो पाते इसके सेवन से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि होती है तथा शरीर का ओज बढ़ता है। रसायन चिकित्सा मेरा मृगराज अश्वगवा पुनर्नवा तथा चित्र आदि औषधिया का प्रयोग किया जाता है। रसायन औषधियां पुरुष को भी बढ़ाती है


को स्वस्थ तथा दीर्घ आयु प्रदान करती है। अतः रसायन चिकित्सा का विधिवत सेवन करने से मनुष्य पुनः अपने पूर्ववत स्वास्थ्य व युवावस्था को प्राप्त करता है।


रसायन चिकित्सा के सन्दर्भ में चरक संहिताकार लिखते है कि रसायन का सेवन करने से मनुष्य दीर्घ आयु स्मरणशक्ति, मेघा, आरोग्य प्रभा तरुणावथा वर्ण स्वर की उदारता देह एवं शरीर को इन्दियों में उत्तम बल की प्राप्ति करता है। प्रभा वर्ग स्वरौदार्य देहेन्द्रिय बल परम ।।


चरक चिकि० [1/7