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आयुर्वेद की परिभाषा, उद्देश्य एवं विभाग - Definition, Purpose and Department of Ayurveda


आयुर्वेद की परिभाषा, उद्देश्य एवं विभाग -

आयुर्वेद शब्द दो शब्दों के योग से बना है आयुः वेद आयुर्वेद आयु को आयुर्वेद कहते हैं आयुषवेद: आयुर्वेद आयु और वेद शब्दों के अलग-अलग अर्थज्ञान के पश्चात आयुर्वेद शब्द का वास्तविक अर्थ जाना जा सकता है.. आयु का स्वरूप

शरीरेन्द्रियसत्वात्मसंयोगोधारि जीवितम्।


नित्यगच्यानुबन्धच पर्यायैरायुरुध्यते (सू 1/42)


शरीर इन्द्रिय मन और आत्मा के योग को आयु कहते है का चैत्र, जिहवा और प्राण ये ज्ञानेन्द्रियों कहलाती है, वाणी हाथ, पैर मलद्वार और मूत्रमार्ग ये पाँच कर्मेन्द्रियी है। मन को यात्मक इन्द्रिय कहते हैं क्योंकि मन को और कर्म दोनों होते हैं ज्ञान का अधिकरण तथा ज्ञान का प्रति संचाता आत्मा होता है।


इन शरीर, इन्द्रिय मन एवं आत्मा का जो संयोग होता है, वही संयुक्त स्वरूप से आयु कहलाता है बैतन्य की स्थिति को आयु कहते हैं।


वेद शब्द का अर्थ बेद शब्द का अर्थ है ज्ञान संस्कृत के वि से पैद शब्द बना है।


इस प्रकार आयु और वेद दोनों शब्दों की व्याख्या के पश्चात आयुर्वेद शब्द का अर्थ जिस शास्त्र में आयु का अस्तित्व हो जिससे आयु का ज्ञान हो, जिससे आ सम्बन्धी विचार हो और जिससे आयु की प्राप्ति हो उस शास्त्र को आयुर्वेद है।




आयुर्वेद की परिभाषा


"हिताहित] सुख दुःखमागुस्तस्य हिताहितम्


मान च राज्य यत्रोकामायुर्वेदः स उच्यते। (सू 1/41)


जिस शास्त्र में 1 हितायु 2 अहितायु सुखायु दुःखायु का वर्णन हो, आयु के लिये हितकर तथा अहितकर दव्य गुण एवं कर्म का वर्णन हो आयु के प्रभाव का विवेचन और आयु के स्वरूप का वर्णन किया जाता है, उसे आयुर्वेद कहते हैं।


आयुर्वेद का उद्देश्य


आयुर्वेद शास्त्र आयु की व्याख्या करता है। यह दीर्घ और आरोग्यमय आयु की प्राप्ति का मार्ग निर्दिष्ट करता है। आयु की स्थिरता और स्वारुण संरक्षण एवं व्याधि परिमोक्षण यही इसका उद्देश्य है।


आयु का मान पुरुष की प्रकृति, विकृति धातुओं की सारता (रस, रक्त, मांससार आदि)शरीर की बनावट अनुकूलता मनस्थिति आहार-शक्ति व्यायाम शक्ति आदि को देखकर उसके दीर्घायु या अल्पायु होने की परीक्षा की जाती है। सामान्यतया घृत दुग्ध-तैल, मॉसरस के नित्य सेवी एवं मोजी व्यक्ति बलवान और चिज होते है। कफ प्रकृति के व्यक्ति दीर्घायु पित्त प्रकृति वाले मध्यायु और वात प्रकृति वाले अल्पायु होते हैं।


आयुर्वेद आयु की रक्षा के साधनों का उपदेश करने वाला शास्त्र है। "प्रयोजना स्वस्थ रक्षरणम आतुरस्य विकारप्रशमनं च।(30/26)


आयुर्वेद के दो उद्देश्य -


1. स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य रक्षा करना और


2. रोगी व्यक्ति के रोग को दूर करना है। प्रथम उद्देश्य की पूर्ति हेतु दिनचर्या, रात्रि ऋतु मृत तथा त्रिविध उपस्तनों (आहार निया ब्रह्मचर्य का पालन करके किया जाता है जिनका उल्लेख स्वस्थवृत्त के माध्यम से आयुर्वेद में किया गया है।


आयुर्वेद शास्त्र का दूसरा उद्देश्य रोग से ग्रस्त होने पर रोगी के कष्ट का निवारण संशोधन तथा सशमन द्वारा करना है।


स्वस्थ का लक्षण / स्वस्थ की परिभाषा समदोष समाग्निश्च समधातुमलक्रियः । प्रसन्नात्मेन्द्रियमना स्वस्थ इत्यभिधीयते । (15/41)


पित एवं कफ जब साम्यवस्था में हो, अग्नि सम हो, धातु (रस रक्त मौस भेद, अस्थि मज्जा शुक्र) राम अवस्था में हो, मल, मूत्र आदि रूप से उत्सर्जित होते हों, शरीर में सभी किया समान रूप से होती हो. इसके साथ-साथ आत्मा इन्द्रिय और मन प्रसन्न हो उसे स्वस्थ कहते है शरीर, इन्द्रिय मन और आत्मा के संयोग को आयु कहते हैं, उसे ही जीवन कहते हैं, उस आयु का ज्ञान, उसका विचार उसकी प्राप्ति और उसके संरक्षण का शास्त्र आयुर्वेद कहलाता है।



आयुर्वेद के आठ अंग (विभाग)


ब्रह्मा ने मनुष्य की सृष्टि के पहले ही एक ग्रन्थ बनाया जिसमें एक लाख श्लोक और एक हजार अध्याय थे। 16/91 प्रारम्भ में आयुर्वेद को आठ अंग में विभक्त किया -


1. शल्य


2. शालाक्य


3. कायचिकित्सा


4. भूतविद्या


5. कौमारभृत्य


6. अगदतंत्र


7. रसायनतन्त्र


8. वाजीकरण तन्त्र




शल्यतन्त्र-


अनेक प्रकार के छाल, लकड़ी, पत्थर, धूलिकण, धातु, मिट्टी, हड्डी केश, नख, पू आदि आगन्तुक तथा आगन्तुक शल्यों के निकालने के लिये मंत्र-शस्त्र क्षारकर्म, अग्निकर्म के प्रयोग के लिए विविध प्रकार के व्रणों का विनिश्चय करने के लिये यह शल्य नामक आयुर्वेदांग प्रवृत्त होता है। इसे ही शल्यतन्त्र कहते हैं। राज्यतन्त्र को पाश्चात्य चिकित्सा विज्ञान में सर्जरी कहते हैं। शल्यतन्त्र के ग्रन्थ सहिता ग्रन्थों में सुश्रुतसंहिता सर्वप्रधानसहित में प्रणागार व्यवस्था के प्रकार उनकी चिकित्सा के साठ उपक्रम आठ प्रकार के शस्त्रकर्म यंत्रशस्त्रों के प्रकार जलीका विधि र प्रयोग अग्निकर्म एवं सिराध आदि का विशद वर्णन किया गया है। कान, नाक और जीठ के कटने पर उनको सन्मान करने की विधि बतलायी गयी है। अर्श, अश्मरी और भगन्दर आदि में शस्त्र प्रणिधान एवं क्षार कर्म करने का विधान है।


सुश्रुत की विधियों के आधार पर ही आधुनिक सर्जरी का विकास हुआ है। शल्य विज्ञान में सुश्रुतसंहिता का प्राय में अद्वितीय स्थान है।


2 शालाक्य तन्त्र-


कर्ण नेत्र मुख नासिका आदि अत्र के उपर के अंगों में उत्पन्न हुए रोगों की चिकित्सा के लिए तथा शालाक्य यन्त्र के प्रयोग के लिए जो आयुर्वेदाग है, उसे 'शालाक्यतन्त्र कहते हैं। शालाक्य में समाविष्ट किये गये अगों में से आधुनिक चिकित्सा में कर्ण, नासिका और कठ का एक विभाग माना गया है तथा देत रोगों का भी स्वतन्त्र दिमाग किया गया है।


तंत्र का प्रमुख ग्रन्थ सुश्रुतसंहिता है। जिसके उत्तर तन्त्र के अध्याय से 19 तक का 20वें तथा 21 अध्याय में कर्णरांग 22 से 24वें अध्याय तक नासिका रोग और 25 से 26वें अध्याय में शिरों राग का वर्णन है। सुश्रुत के समय में ने शरीर का अध्ययन तथा क्षेत्र के विभिन्न अवयवों में होने वाले रोगों का विशेष अध्ययन प्रचलित था।


व्यवहारिक प्रयोग के लिये सेकविडालक, लेप, नेत्रपूरण, अन्जन, वर्ति आदि का प्रयोग किया जाता था। कान, नाक, कण्ठ मुख आदि के रोगों के निदान और उनकी चिकित्सा का भी स्वतन्त्ररूप से अध्यन किया जाता था शस्त्रसाध्य रोगों में शस्त्रकर्म भी किया जाता था।


3. कायचिकित्सा


आयुर्वेद के सभी अंगों में कायचिकित्सा का प्रमुख स्थान है। अतिप्राचीन काल से वर्तमान काल तक आयुर्वेद के सम्मान और प्रतिष्ठा का कारण आयुर्वेदीय कायचिकित्सा है। शरीर के सर्वांग में होने वाले ज्वर, रक्तपित्त, शोय, उन्माद, कुष्ठ एवं अतिसार आदि दोष वैषम्य से उत्पन्न रोगों की चिकित्सा का विधान जिसमें किया जाता है, आयुर्वेद के उस अंग को कायचिकित्साह है।


काय का अर्थ है सम्पूर्ण शरीर अतः सम्पूर्ण शरीरगत रोगों की चिकित्सा को 'कित्सा' कहते हैं। चिकित्सक औषध परिचारक और रोगी ये चारों अपने-अपने उत्तम गुणों से युक्त डोकर चातु वैषम्य होने पर उस धातु वैषम्य को दूर करने एवं धातु साम्य की स्थिति लाने में प्रवृत्त होते हैं, उस प्रवृत्ति को चिकित्सा कहते हैं।


चिकित्सा के प्रकार - कायचिकित्सा के प्रमुख ग्रन्थ चरक संहिता में चिकित्सा के दो प्रकार बतलाये गये है स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य को अधिक प्रशस्त (ऊस्कर) बनाने वाला और रुग्ण व्यक्ति के रोग को दूर करने वाला । सवय ऊर्जस्वार के भी दो प्रकार होते है


1. रसायन 2. बाजीकरण


रसायन • शरीर में रस रक्तादि धातुओं की प्रशस्ततापूर्वक प्राप्ति के उपाय को रसायन कहते हैं।


वाजीकरण यह वह प्रक्रिया है जिसके प्रयोग में अल्पवीर्य दुष्टवीर्य क्षीणवीर्य एवं सन्तानहीन पुरुषों को वीर्यसम्पन्न पौषशक्ति सम्पन्न प्रहर्षयुक्त तथा सन्तानोत्पति में समर्थ बनाया जाता है।


चिकित्सा का दूसरा प्रकार रुग्ण व्यक्ति के रोग को दूर करना है। इसके तीन भेद -


1. दैवव्यपाश्रय 2. सत्वावजय 3. युक्तिव्यपाश्रय


1. दैवव्यपाश्रय चिकित्सा में रोग को दूर करने के लिये मणियों का बलिउपहार मन्त्रजप और हवन का विधान है।


2 सत्वावजय इसमें मन को हितकर विषयों में प्रवृत्त होने से रोका जाता है और ज्ञान, विज्ञान, धैर्य, आश्वासन आदि के द्वारा मनोबल को बढ़ाया जाता है एवं सत्वगुण को बढ़ाने का उपाय किया जाता है।


3. युक्तिव्यपाश्रय में रोगी की प्रतिष्यलाल आदि का कर औषध प्रयोग तथा आहार-विहार की समुचित योजना से रोग का उन्मूलन किया जाता है।


चिकित्सा के सामान्य सिद्धान्त


1. पहला सिद्धांत है कि जिन कारणों से रोग उत्पन्न हुआ हो उसका परित्याग करना चाहिये।


2 उष्णता से होने वाले रोगों में शीतोपचार और शीत से होने वाले रोगों में कृष्ण उपचार करना चाहिये।


हुए दोषों को बढ़ाना चाहिये बढ़े हुए दोषों को घटाना चाहिए और राम दोषों की सम बनाये रखने का प्रयत्न करना चाहिए।


3. शारीरिक रोगों को दूर करने के लिए व्यपाश्रय और युक्तिया चिकित्सा करनी चाहिए।


4. मानसिक रोगों में ज्ञान, विज्ञान, धैर्य स्मृति एवं चित की एकाग्रता आदि की प्रक्रिया अपना कर चिकित्सा करनी चाहिए।


5. अच्छी तरह से प्रयुक्त किये गये संशोधन संशमन, आहार और बिहार रोगों का नियमन करते हैं।


6. रोग के अनुसार जहाँ-जहाँ उपयुक्त हो वहीं विधिपूर्वक संशोधन संशमन और संशोधन वह चिकित्सा उपक्रम है जिसके द्वारा शरीर में बढ़े हुए दोषों को योग के कारण का परित्याग करना चाहिये।


मन-विरेचन आदि कर्मों के द्वारा शरीर से बाहर निकाला जाता है, संशोधन चिकित्सा में पांच मुख्य कर्म होते हैं,


1. वमन

2. विरेचन

3. नस्य

4. निरूह और

5. अनुवासन अथवा मतान्तर से रक्त मोक्षण


संशमन - जो मल को बाहर नहीं निकालता एवं विषम धातुओं और से रक्त माण दोषों को समान स्थिति में व्यवस्थित रखता है। संशमन सात प्रकार के होते हैं -


1. दीपन


2. पाचन


3. क्षुधानिग्रहण


4. तृषानिग्रह


5. परिश्रम


6. धुप सेवन


7. वायु सेवन


2. बृहण कर्म भी शमन का कार्य करता है। ब्रहण किया से शरीर में बाल पुष्टि और स्थिरता आती है।


भूतविद्या


आयुर्वेद का यह अंग सर्वाधिक उपेक्षित अग है। इस विषय का स्वतन्त्र कोई प्राचीन ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है।


परिभाषा - देवता, पितृ पिशाच तथा ग्रह आदि के आक्रमण से पीड़ित व्यक्तियों के कष्ट को दूर करने के लिए उन देव आदि के लिये बलि उपहार पूजा आदि के विधान द्वारा रोग शान्ति का उपचार जिस अंग द्वारा किया जाता है उसे भूतविद्या कहते हैं।


कौमारभृत्य


इस आयुर्वेदांग में कुमार (बालक) के भरण-पोषण की व्यवस्था, पात्री परीक्षा, दुष्ट-दुग्ध विशोधन रोगों का प्रकार बालकों के रोगों की चिकित्सा का विधान किया जाता है। वृद्ध काश्यप द्वारा रचित काश्या संहिता में कॉमरभूत्य एवं उनकी व्याधियों का विशेष वर्णन उपलब्ध है।


आयु के अनुसार बालक तीन प्रकार के होते हैं -


1.क्षीरप (दूध पीने वाला)


2. श्रीरान्नाद (दूध और अन्न खाने वाले)


3. अन्नाद (केवल अन्त पर निर्भर)


बालक के जन्म होने के साथ ही उसका उपचार शुरू हो जाता है। उसके कुछ संस्कार किये जाते है। उसके लिए पेय ले की व्यवस्था की जाती है। इसमें बालकों को विभिन्न आयु में भिन्न-भिन्न ग्रहों के प्रकोप से होने वाले रोगों का वर्णन है और उनके उपचार का विधान किया गया है।


अगदतन्त्र


अगद तंत्र वह तंत्र है जिसके अंतर्गत अनेकों प्रकार के जान्तव एवं गर (रासायनिक) विषा की चिकित्सा का वर्णन है। यह सुश्रुताचार्य की दी हुयी संज्ञा है। चरक ने इसे विषमस्वैरोधिक प्रशमन कहा है वाग्भट आचार्य ने इसका नाम 'दष्टा चिकित्सा कहा है। सर्प, कोट, लूता आदि से ईसा हुआ अनेक प्रकार के स्वाभाविक कृत्रिम एवं संयोग विष से ग्रस्त मनुष्यों के निदान तथा चिकित्सा के लिये जो अंग होता है उसे अगदतन्त्र कहते हैं।


रसायन


जो चिकित्सा उपक्रम जरा एवं व्याधियों को शरीर से दूर रखता है उसे रसायन रसायन में औषध आहार और बिहार तीनों ही प्रकार है। जिन द्रों के सेवन से शरीर में उत्तम रस रक्तादि धातुओं की उपलब्धि होती है, वे रसायन कहे जाते कहते है।


है। दीर्घकाल तक तारुण्यावस्था स्थापन करने के लिए आयु बल तथा बुद्धि की वृद्धि के लिये एवं शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए जो आयुर्वेदाग हैं. उसे रसायनतन्त्र कहते हैं।


स्था को दूर रखते हुए करावस्था को लम्बे समय तक बनाये रखना और रोग को दूर करना ये दो कार्य रसायन चिकित्सा के है।


रसायन प्रकार


1. औषधीय रसायन प्राकृतिक रूप से उपलब्ध अनेक द्रव्य रसायन गुणों युक्त होते है यथा हरीतकी (हरड़े) आमल की (आंवला) शतावरी रसोन गुग्गुलु एवं शिलाजतु (शिलाजीत) इसके अतिरिक्त विशेष विधियों से विशेष रसायन योग तैयार किये जाते हैं जैसे रसायन वनप्राश रसायन आदि


2. आचार रसायन पालन करना यम नियम आदि का पालन करना गुरुओं, वृद्ध पुरुषों का आदर एवं सम्मान करना सदैव सत्य बोलना आदि ये आचार रसायन हैं इनसे मनुष्य के मानसिक बल की वृद्धि होती है।


वाजीकरण


चिकित्सा उपक्रम जिसके द्वारा पौरुष शक्ति की वृद्धि होती है उसे वाजीकरण कहते है।


क्षीणपौरुष, अल्पवीर्य और सन्तानोत्पत्ति में असमर्थ पुरुषों को चीर्यवान, पौ और संतान को उत्पन्न करने में समर्थ बनाने वाला अंग वाजीकरण है।