संज्ञाप्रकरणम् - संस्कृत भाषा का सामान्य परिचय
संज्ञाप्रकरणम्
संज्ञाप्रकरणम्अ –
इउण् ।1। ऋल्क् ।2। एओङ्
13। ऐऔच् ।4। हयवरट् 15। लण् 161 मङणनम् 7 झभञ 18
| घढधष् 19 | जबगडदश् ।10। खफछठथचटतव् ।11। कपय् ।12।
शषासर्। 13 हल | 14 |
इति माहेश्श्वराणि
सूत्रण्यणादिसंज्ञार्थानि । एषामन्त्या इतः । हकारादिष्ष्वकार उच्चारणार्थः ।
लण्मध्ये त्वित्संज्ञकः ।
व्याख्याः ये 14 सूत्र माहेश्वर सूत्र कहलाते हैं। इनसे अण आदि प्रत्याहार संज्ञाएं बनती
हैं। ये संज्ञाएं पाणिनि के व्याकरण
में सर्वत्र प्रयुक्त हैं। इन सूत्रों
में अन्तिम वर्ण अनुबन्ध कहलाता है जिसकी इत्संज्ञा होती है। इत्संज्ञा का प्रयोजन
उसका लोप करना है। हकारादि व्यंजन अ स्वरयुक्त पढ़े गए हैं क्योंकि व्यंजनों का
प्रयोग स्वर की सहायता के बिना नहीं हो सकता। परन्तु लण सूत्र में लू के साथ आने
वाला अकार इत्संज्ञक है।
हलन्त्यम् 1.1.3
उपदेशेन्त्यं हलित्स्यात्। उपदेश
आद्योच्चारणम् । सूत्रेष्वदष्टं पदं सूत्रन्तरादनुवर्तनीयं सर्वत्र ।
व्याख्याः उपदेश अवस्था में जो अन्तिम हल
होता है,
उसकी इत्संज्ञा होती है। हल से तात्पर्य व्यंजन है क्योंकि हल
प्रत्याहार में सभी व्यंजन आ जाते हैं। पाणिनि ने जिस रूप में सूत्र का उच्चारण
किया है उसे उपदेश कहते हैं। सूत्र के अतिरिक्त प्रत्यय आदि में भी पाणिनि द्वारा
जिस रूप में पठित हैं उसे भी उपदेश कहते हैं। पाणिनि द्वारा उपदिष्ट अवस्था में
अन्त में जो हल आता है उसकी इत्संज्ञा होती है। इत् संज्ञा का प्रयोजन उस वर्ण का
लोप करना है, यह अग्रिम सूत्रों से स्पष्ट होगा ।
अदर्शनं लोपः 1.1.60
प्रसक्तस्यादर्शनं लोपसंज्ञं स्यात् ।
व्याख्याः विद्यमान होने पर भी जो दिखाई
न दे उसकी लोप संज्ञा होती है। जैसे व्यवहार में अइउण आदि सूत्रों में ण् आदि
अनुबन्धों को नहीं गिना जाता, अतः इनकी लोप
संज्ञा कहलाती है। किसी वर्ण को किसी नियम द्वारा अदष्ट कर दिया जाए अर्थात् उसका
श्रवण या उच्चारण न हो उसकी लोप संज्ञा होती है।
तस्य लोपः 1.3.9
तस्येतो लोप: स्यात् । णादयोणाद्यर्थाः ।
व्याख्याः जिसकी इत् संज्ञा हो उसका लोप
हो जाता है। उदाहरणार्थ उपर्युक्त माहेश्वर सूत्रों में आने वाले अन्तिम हल की
हलन्त्यम् से इत् संज्ञा हो जाती है। अतः अण् आदि प्रत्याहारों में इनकी गणना नहीं
होगी।
आदिरन्त्येन सहेता 1.1.71
अन्त्येनेता सहिता आदिमध्यगानां स्वस्य च
संज्ञा स्यात् । यथा अण इति अइउ वर्णानां संज्ञा । एवम् अच्,
अल्, हलित्यादयः ।
व्याख्याः आदि वर्ण के साथ जब अन्तिम इत्
वर्ण उच्चरित हो तो वह संज्ञा आदि वर्ण के साथ इत्संज्ञक वर्ण तक आने वाले वर्णों
की भी होती है। जैस अइउण सूत्र में आदि वर्ण अ है और अन्तिम इत् वर्ण ण है। इसलिए
अण् संज्ञा अ तथा मध्य में आने वाले वर्णों इ तथा उ के लिए प्रयुक्त होगी। इसी
प्रकार हल में आदि वर्ण ह है और ल अन्तिम सूत्र हल में इत्संज्ञक है। इसलिए हल
संज्ञा ह् से लेकर ल तक सभी वर्णों के लिए प्रयुक्त होगी। इस नियम के आधार पर
प्रत्याहार बनाए जाते हैं।
प्रत्याहार बनाने की विधि: उपर्युक्त
माहेश्वर सूत्रों में आए हुए किसी भी वर्ण से प्रत्याहार बनाए जा सकते हैं। वर्ण
चाहे सूत्र के आदि में हो या मध्य में उसी से प्रारम्भ करके किसी भी इत्संज्ञक
वर्ण तक गणना की जा सकती है। जहाँ से गणना प्रारम्भ की गई है उस वर्ण से लेकर
इत्संज्ञक वर्ण तक जितने भी वर्ण आए हैं सभी उस प्रत्याहार में सम्मिलित होंगे।
अच् प्रत्याहार में अइउण सूत्र में आए हुए अ से गणना प्रारम्भ होगी और ऐऔच सूत्र
में आए हुए इत्संज्ञक वर्ण च तक गणना होगी। अ से लेकर च तक आए हुए सभी वर्ण अच्
प्रत्याहार में सम्मिलित होंगे। परन्तु अच् प्रत्याहार में इत्संज्ञक वर्ण च तथा
बीच में आए हुए अन्य सूत्रों के अन्तिम इत्संज्ञक वर्ण सम्मिलित नहीं होंगे
क्योंकि इत्संज्ञक वर्ण का लोप हो जाता है। अतः अच् प्रत्याहार में वर्ण होंगे अ इ
उ ऋ ल ए ओ ऐ औ । इसमें इत्संज्ञक वर्ण ण् क् ङ् तथा च् सम्मिलित नहीं होंगे। इसी प्रकार
सभी प्रत्याहार बनाए जा सकते हैं।
उश्च ऊश्च उ3श्च वः । वा काल इव कालो यस्य सोच् क्रमाद् हस्वदीर्घप्लुतसंज्ञः स्यात् ।
स प्रत्येकमुदात्तादिभेदेन त्रिधा ।
व्याख्याः उ स्वर के उच्चारण में जितना
समय लगता है उसे एक मात्रा काल कहते हैं। एक मात्रा काल की हस्व संज्ञा होती है।
दीर्घ ऊ के उच्चारण में दो मात्रा का काल होता है। दो मात्रा काल वाले स्वर की
दीर्घ सेशा होती है। तीन मात्रा काल वाले स्वर की प्लुत संज्ञा होती है। प्रत्येक
स्वर के उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित ये तीन भेद होते
हैं।
उच्चैसदात्तः 1.2.29
ताल्वादिषु सभागेषु स्थानेषूभागे
निष्पन्नोजुदात्तसंज्ञः स्यात् ।
व्याख्याः ताल्वादि स्थानों से वर्णों का
उच्चारण होता है। जो स्वर ताल्वादि के ऊपर के भाग से उत्पन्न होता है उसकी उदात्त
संज्ञा होती है।
नीचैरनुदात्त: 1.2.30
ताल्वादिषु सभागेषु स्थानष्वधोभागे निष्पन्नोच्
अनुदात्तसंज्ञः स्यात् ।
व्याख्या: जो स्वर ताल्वादि के नीचे के
भाग से उत्पन्न होता है उसकी अनुदात्त संज्ञा होती है।
समाहार: स्वरितः 1.2.31
उदात्तानुदात्तत्वे वर्णधर्मो समाहियेते
यत्र सोच् स्वरितसंज्ञः स्यात् । स नवविधोपि प्रत्येकमनुनासिकाननुनासिकमेन द्विधा
। व्याख्या: जिस अच् मे उदात्त तथा अनुदात्त दोनों का धर्म मिश्रित हो उसे स्वरित
कहते हैं। अर्थात् जो वर्ण ताल्वादि के मध्य
भाग से बोला जाए उसे स्वरित कहते हैं। इस
प्रकार स्वर 9 प्रकार का होता है। अनुनासिक और
अननुनासिक ये दो भेद भी प्रत्येक स्वर के होते है।
मुखनासिकावचनोनुनासिकः 1.1.8
मुखसहितनासिकयोच्चार्यमाणो
वर्णोनुनासिकसंज्ञः स्यात् । तदित्थम् अ इ उ ऋ एषां वर्णानां प्रत्येकमष्टादशभेदाः
। ल वर्णस्य द्वादश, तस्य दीर्घाभावात्।
एचामपि द्वादश, तेषां हस्वाभावात् ।
व्याख्याः मुख और नासिका दोनों से
उच्चरित होने वाला वर्ण अनुनासिकसंज्ञक होता है। वर्ण का उच्चारण तीन द्वारों से
होता है –
मुख से, नासिका से तथा मुख और नासिका दोनों से
केवल मुख से उच्चरित होने वाला वर्ण सामान्य होता है। अ. इ. क ख आदि वर्ण केवल
मुखद्वार से उच्चरित होते हैं। केवल नासिका से उत्पन्न होने वाले वर्ण नासिक्य
कहलाते हैं। अनुस्वार () नासिक्य ध्वनि है। मुख और नासिका एक साथ दोनों से उच्चरित
होने वाले वर्ण अनुनासिक कहलाते हैं। ङ. ञ, ण, न तथा म अनुनासिक ध्वनियाँ हैं जो स्वर केवल मुख से उच्चरित होता है वह अननुनासिक
होता है। जो मुख और नासिक दोनों की
सहायता से उच्चरित हो वह अनुनासिक होता है। प्रत्येक स्वर अनुनासिक या अननुासिक हो
सकता है।
स्वरों के भेदः अ,
इ, उ, ऋ में प्रत्येक के
18 भेद हैं। ल का दीर्घ नहीं होता, अतः
इसके 12 भेद हैं। ए, ओ, ऐ और औ में प्रत्येक के 12 भेद हैं क्योंकि इनका
ह्रस्व नहीं होता।
तुल्यास्यप्रयत्नं सवर्णम् 1.1.9
ताल्वादिस्थानमाभ्यान्तरप्रयत्नं
चेत्येतद् द्वयं यस्य येन तुल्यं तन्मिथः सवर्णसंज्ञं स्यात् ।
व्याख्याः जिन वर्णों के तालु आदि
उच्चारण स्थान और आभ्यान्तर प्रयत्न समान हों उनकी परस्पर सवर्ण संज्ञा होती है।
किसी वर्ण के उच्चारण में किए गए प्रयास को प्रयत्न कहते हैं। प्रयत्न दो प्रकार
का होता है . आभ्यान्तर प्रयत्न तथा 2. बाह्य
प्रयत्न | वर्ण के उच्चारण में मुख के भीतर होने वाले
प्रयत्न को आम्यान्तर प्रयत्न कहते हैं यह प्रयत्न जिवा का तालु आदि स्थान से
सम्पर्क करते समय होता है। वर्ण को बाहर प्रकट करने के लिए जो प्रयत्न किया जाता
है उसे बाह्य प्रयत्न कहते हैं। इस प्रयत्न के द्वारा वर्ण बाहर प्रकट होता है,
इसलिए इसे बाह्य प्रयत्न कहते हैं।
वा. ॠलवर्णयोः मिथः सावर्ण्य वाच्यम्ॠ और
ल वर्ण परस्पर सवर्ण होते हैं। वर्णों के उच्चारण स्थानः
1. अकुहविसर्जनीयानां कण्ठः। 2.
इचुयशानां तालु। 3. ऋटुरषाणां मूर्धा 4 लतुलसानां दन्ताः। 5. उपूपध्मानीयानामोष्ठौ। 6.
स्मङणनानां नासिका च। 7. एदैतोः कण्ठतालू 8 आदौतोः कण्ठोष्ठम्। 9. वकारस्य दन्तोष्ठम् । 10.
जिह्वामूलीयस्य जिह्वामूलम् । 11. नासिकानुस्वारस्य
।
1. अकार, कवर्ग (
क, ख, ग, घ,
ङ), हकार और विसर्ग का उच्चारण स्थान कण्ठ है।
2. इकार, चवर्ग (च, छ, ज, झ, ञ) यकार और शाकार का उच्चारण स्थान तालु है। 3. ऋकार,
टवर्ग (ट, ठ, ड, ढ, ण), र और ष का उच्चारण
स्थान मूर्धा है। 4. ल. तवर्ग ( त, थ,
द, ध, न ) ल और स का
उच्चारण स्थान दन्त है। 5. उकार, पवर्ग
(प, फ, ब, म,
म) उपध्मानीय का उच्चारण स्थान ओष्ठ हैं। 6. ञ,
म, ङ, ण, न का उच्चारण मुख और नासिका है। 7. एकार और ऐकार का
उच्चारण स्थान कण्ठ तालु है 8 ओकार और औकार का उच्चारण स्थान
कण्ठोष्ठ है। 9. वकार का उच्चारण स्थान दन्तोष्ठ है। 10.
जिह्वामूलीय का उच्चारण स्थान जिह्वामूल है। 11. अनुस्वार का उच्चारण स्थान अनुस्वार है।
यत्नो द्विधा आभ्यान्तरो बाह्यश्च आद्या
पञ्चधा-स्पष्टेषत्स्पष्टेषद्विवतविवतसंवतभेदात् । तत्र स्पष्टं प्रयत्
स्पर्शानाम्। ईषत्स्पष्टमन्तः स्थानाम् ईषद्विवतमूष्माणाम्। विवतं स्वराणाम् ।
हस्वस्यावर्णस्य प्रयोगे संवतम्, प्रक्रियादशायां तु
विवतमेव ।
बाह्यस्त्वेकादशधा विवार: संवारः श्वासो
नादो घोषोघोषोल्पप्राणो महाप्राण उदात्तोनुदात्तः स्वरितश्चेति । खरो विवारा: वासा
अघोषाश्च हशः संवारा नादा घोषाश्च वर्गाणां प्रथम-ततीय पंचमा यणश्चाल्पप्राणाः ।
प्रयत्नः
वर्गाणां द्वितीयचतुर्थी शलश्च
महाप्राणाः । कादयो मावसाना स्पर्शाः । यणोन्तस्थाः । शल ऊष्माणः । अचः स्वराः । क
ख इति प्रागार्धविसर्गसदशो जिहामूलीयः। प फ पफाभ्यां प्रागर्धविसर्गसदश उपध्मानीयः
। अं अः इत्यचः परावनुस्वारविसर्गौ।
आभ्यान्तर प्रयत्न पाँच प्रकार का होता
है स्पष्ट, ईषत्स्पष्ट, ईषद्विवत
विवत तथा संवत स्पर्शो का प्रयत्न स्पर्श है। क से लेकर म तक स्पर्श कहलाते हैं।
अन्तस्थों का प्रयत्न ईषत्स्पष्ट होता है। यण् अर्थात् य र ल व अन्तस्थ कहलाते
हैं। ऊष्मों का प्रयत्न ईषद्विवत कहलाता है। शल् अर्थात् श ष स ह ऊष्म कहलाते हैं।
स्वरों का प्रयत्न विवत होता है। अच पत्याहार के अन्तर्गत आने वाले सभी वर्ण स्वर
कहलाते हैं इस्व अकार प्रयोग में संवत होता है परन्तु व्याकरण प्रक्रिया के
निर्वाह के लिए इसे विवत पढ़ा गया है।
बाह्य प्रयत्न 11 प्रकार का होता है- विचार, संवार, श्वास, नाद, घोष, अघोष, अल्पप्राण, महाप्राण
उदात्त, अनुदात्त • तथा स्वरित । खर
अर्थात् ख फ छ ठ थ च ट त क प श ष स का प्रयत्न विवार वास तथा अघोष होता है। हश्
अर्थात् ह य व र लञ म ङण न झ भघ ढध ज ब ग ड द का प्रयत्न संवार, नाद तथा घोष है। वर्ग के प्रथम, ततीय तथा पंचम वर्ण
तथा यण का प्रयत्न अल्पप्राण होता है। वर्ग के द्वितीय, चतुर्थ
तथा शल का प्रयत्न महाप्राण होता है। क और ख से पूर्व विसर्ग आधे विसर्ग के समान
बोले जाते हैं। उन्हें जिह्वामूलीय कहते है। इसी प्रकार प और फ से पूर्व विसर्ग
आधे विसर्ग के समान बोले जाते हैं। उन्हें उपध्मानीय कहते हैं। ऊपर कहा जा चुका है
जिह्वामूलीय का उच्चारण स्थान जिह्वामूल होता है तथा उपध्मानीय का उच्चारण स्थान
ओष्ठ होता है।
अणुदित्सवर्णस्य चाप्रत्ययः 1.1.69
प्रतीयते विधीयते इति प्रत्ययः
अविधीयमानोणुदिच्च सवर्णस्य संज्ञा स्यात् । अत्रैव अण् परेण णकारेण । कु चु टु तु
पु एते उदितः ।
तदेवम् अ इत्यष्टादशानां संज्ञा तथेकारोकारौ ऋकारस्त्रिंशतः । एवं लकारोपि एचो द्वादशानां । अनुनासिकाननुनासिकभेदेन यवला द्विधा तेनाननुनासिकास्ते द्वयोद्वयोः संज्ञा व्याख्याः अण् प्रत्याहार में आने वाले वर्ण तथा जिनमें इस्व उकार की इत्संज्ञा है वे वर्ण अपने सवर्ण को भी ग्रहण करते हैं, परन्तु प्रत्यय के विषय में यह बात लागू नहीं होती। ण् अनुबन्ध दो सूत्रों में आया है अइउण तथा लण् में । यहाँ शंका होती है कि कौन से णकार से अण प्रत्याहार बनाया जाए। इसका उत्तर यह है कि यहाँ अण प्रत्याहार में बाद वाले णकार का ग्रहण है। यहाँ अण प्रत्याहार से तात्पर्य है अ इ उ ऋ ल ए ओ ऐ औ ह य व र ल वर्ण उदित में कु चु टुतु पु आते हैं। पाणिनि यदि कु से सम्बन्धित नियम बताते हैं तो वह क के सवर्ण ख ग घ तथाङ पर भी लागू होगा।
इस प्रकार अ 18 प्रकार के अ का बोधक है। इसी प्रकार इकार तथा उकार ऋ और ल की सवर्ण
संज्ञा है इसलिए 18 प्रकार का ऋकार और 12 प्रकार का लकार दोनों मिलकर ऋकार .30 प्रकार का हुआ
एच अर्थात् ए ओ ऐ औ प्रत्येक 12 प्रकार के हुए अनुनासिक और
अननुनासिक भेद से य व ल प्रत्येक दो प्रकार के हुए।
परः सन्निकर्षः संहिता 1.4.109
वर्णानामतिशयितः संनिधिः संहितासंज्ञः
स्यात् ।
व्याख्याः वर्णों के अत्यन्त सामीप्य को
संहिता कहते हैं। जैसे विद्या + आलयः यहाँ विद्या का आ तथा आलयः का आ दोनों
अत्यन्त समीप हैं। इनके बीच में दूसरा कोई वर्ण नहीं है। दोनों को मिलकर आ हो जाता
है। अतः आ की संहिता संज्ञा हुई। सरल शब्दों में हम दो अत्यन्त समीप वर्णों के मेल
को संहिता कहते हैं।
हलोनन्तराः संयोगः 1.1.7
अजिभरव्यवहिताः हलः संयोगसंज्ञाः स्युः ।
व्याख्याः जिन दो व्यंजनों के बीच में
किसी अच् का व्यवधान न हो उनकी संयोग संज्ञा होती है। अर्थात् संयुक्त व्यंजनों की
संयोग संज्ञा होती है। जैसे अध्यात्म शब्द में धू और य की संयोग संज्ञा है।
सुप्तिङतं पदम् 1.1.14
सुबन्तं तिङन्तं च पदसंज्ञं स्यात् ।
व्याख्याः सुप् और तिङ् प्रत्यय जिस के
अन्त में हो उसकी पद संज्ञा होती है। जो श्शब्दरूप वाक्य में प्रयोग के योग्य हो
उसकी पद संज्ञा होती है। पद के मूल रूप को प्रातिपदिक या धातु कहते हैं।
प्रातिपदिक से सुप् प्रत्यय जोड़े जाते हैं और घातु से तिङ् प्रत्यय जोड़े जाते
हैं। सुप् प्रत्यय के योग से संज्ञा रूप, सर्वनाम
रूप, विशेषण आदि रूप बनते हैं।
तिङ् प्रत्यय के योग से क्रिया रूप बनते
हैं। सुप् और तिङ् प्रत्ययों का विवरण आगे दिया जाएगा। यास्क आदि प्राचीन आचार्यों
ने पद चार प्रकार के माने हैं नाम ( संज्ञा, सर्वनाम,
विशेषण आदि), आख्यात (क्रियारूप), उपसर्ग तथा निपात | पाणिनि ने उपसर्गों का समावेश
तिङन्तों में कर लिया है, और निपातों का सुबन्तों में कदन्त
और तद्धितान्त रूप सुबन्तों के अन्तर्गत समाविष्ट हैं क्योंकि सुप्लगाकर ही ये पद
बनते हैं।
( इति संज्ञाप्रकरणम्)
Post a Comment