आयुर्वेद के मूल सिद्धांत - Basic Principles of Ayurveda
आयुर्वेद के मूल सिद्धांत
दोष - तीन शारीरिक एवं दो मानसिक दोष होते है।
त्रिदोष
"वायु पित्तं पश्चेति यो दोष समासः (16)
अर्थात् तीन दोष होते हैं वात पित्त एवं कफ
ये दोष (वात, पित्त, कफ) यदि विकृत हो जाय तो शरीर को रोगी बनाते हैं और यदि अधिकृत रहे तो शरीर को स्वस्थ बनाये रखते हैं। दोषों के स्थान पद्यपि दोष पूरे शरीर में रहते हैं परन्तु मुख्य रूप से दोषों के निम्न स्थान है
दोष - शरीर में स्थान
वायु - नाभि से नीचे
पित्त - हृदय एवं नामि के बीच में
कफ - हृदय के ऊपरी भाग में
अग्नि- आयुर्वेद में अग्नि का अत्यधिक महत्व है इसलिये कायचिकित्सा का अभिप्राय को चिकित्सा से ही है
दोषों की विषमता का अग्नि पर प्रभाव वायु की अधिकता से अग्नि विषम पिता से तीनों दोषों के सम होने पर अग्नि भी सम रहती है। तीक्ष्ण एवं कफ से मन्दाग्नि हो जाती है।
प्रकृति- यह जन्मजात स्वभाव होता है तथा गर्भ के समय शुक्र एवं आतंक के संयोग से तीनों दोषों के अनुसार ही निर्मित होती है। व्यक्ति की प्रकृति की जानकारी में व्यक्ति की चिकित्सा बहुत ही सरलता से की जा सकती है।
पंचमहाभूत सभी द्रव्य पंचमहाभूत पृथ्वी, जलवायु अग्नि एवं आकार) से निर्मित
दोषों के गुण
वात - रुक्ष, लघु शीत सूक्ष्म एवं चल
पित्त- रिनमा तीक्ष्ण उष्ण (गरम) लघु दि सर एवं द्रव
कफ-स्निग्ध, शीत(ठ) गुरु(भारी), मन्द(कम चलने वाला किना), मृत्स्न(चिपकने वाला एवं स्थिर न फैलने वाला) सन्निपात क्षीण हुए या कुपित हुए तीन दोषों का मिलन सन्निपात कहलाता है।
मानसिक दोष मानसिक दोष रज एवं तम हैं।
धातु - अस्थि, रक्त, मांस, रस, शुक्र मेद, मज्जा
जब यह धातु शरीर का धारण करती है तब मालती है एवं जब आदि जाती है तो पूष्य कहलाती है।
मल-मूत्र पुरीष एवं स्वेद में तीन शारीरिक मल हैं।
रस - रस छ है -
मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त, कषाय
रसों का दोषों पर प्रभाव
मधुर अम्ल, लवण- वायु का शमन करते हैं तथा कफ को बढ़ाते हैं।
कटु तिक्त काय कफ का शमन करते हैं तथा वायु को बढ़ाते हैं।
कषाय तिक्त मधुर पित्त का शमन करते हैं।
अम्ल लवण कटु- पित्त को बढ़ाते हैं।
वीर्य गुणों की उत्कर्षता अर्थात् उत्कर्ष शक्ति को बीर्य कहते हैं।
द्रव्य नेद-
तीन प्रकार के औषध होते हैं
2. द्वितीय के दव्य जिनके द्वारा शरीर की धातुओं एवं दोषों का प्रदूषण होता है।
3. तृतीय प्रकार के वे द्रव्य जिनके द्वारा शरीर की धातुओं तथा दीप में बने रहते हैं अर्थात शरीर स्वस्थ रहता है।
रोग के प्रकार
1. निज रोग जो शरीर के अन्दर वातादि दोषों की विषमता के कारण होते हैं । 2. आगंतु रोग घातज आदि बाहरी कारणों से होते हैं (घोट लगना आदि)।
औषध में विभिन्न प्रकार के आम जन्तुओं से प्राप्त होने वाली औदिद (वनस्पतियां) एवं पार्थिव द्रव्य जिनके द्वारा शरीर में उत्पन्न व्याधियों शमित होकर रोगी स्वस्थ होता है और कहलाते हैं।
औषध भेद
1-शोधन औषध-जो औषध या प्रक्रिया दोषों को शरीर से बाहर निकालती है शोधन औषध कहलाती है इसे पचकर्म चिकित्सा भी कहते हैं।
2- शमन औषध जो दोषों के बढ़े हुए अंशों को शामिल कर साम्यावस्था लाती है यह शमन औषध कहलाती है।
वात के कार्य
प्राकृत अवस्था में उत्साह, श्वास निर्गम, श्वास प्रवेश चेष्टा मल मूत्रादि वेगों को प्रवृति आदि
पित्त के कार्य
पाचन, उष्णिमा, दर्शन (शक्ति) भूख-प्यास प्रीति कान्ति, मेघा, बुद्धि देह मार्दव आदि
कफ के कार्य
अंगों की दूता रिनार की संलित सहिष्णुता आदि
चिकित्सा
जिन शोधन शमन आदि कियाओं के द्वारा शरीर में विषमता को प्राप्त एवं चातुर्य राम अवस्था में आ जाती है उन सभी उपक्रमों को चिकित्सा कहते हैं।
याभिकियामिजयन्ते शरीरे पात समा
साचिकित्सा विकाराणा कर्मतनिषजोस्मृतम् ।।
वायु का स्थान मुख्य रूप से नाभि के नीचे पाय टिका स्थान है।
पित्त के स्थान नाभि आमाशय वेद, लसिका रक्त रस आँख और मुख्य स्थान नामि है।
कफ के स्थान वक्ष सिर, आमाश्य रस जिवा ये कफ के स्थान है। इसका मुख्य स्थान छाती एवं इसके ऊपर का स्थान है।
वायु के पांच भेद
प्राण वायु
उदान वायु
समान वायु
अपान वायु
पित्त के पांच भेद
1. पाचक पित्त
2. रंजक पित्त
3. साधक पित्त
4 पिल्ल
5 आलोचक पित
कफ के पांच भेद
1. अवलम्वक फ
2. क्लेदक कफ
3 तर्षक कफ
4. बोधक कफ
5 श्लेषक कफ
दोषों का संचय प्रकोप आदि
संचय जब दोषों की अपने ही स्थान पर वृद्धि होती है। इसमें विपरीत गुण की इच्छा रहती है।
प्रकोप – दोषों का उन्मार्ग गमन अथवा अपने स्थान से अन्य सीन गमन के लिए उन्मुक्त होना कोप है प्रशर -दोषों का प्रकुपित होकर स्वस्थान को त्यागकर शरीर में अन्य जाना प्रश
है।
शमन दोष का पुनः अपने स्थान में अपने प्रमाण में रहना एवं रोग उत्पन्न न होना शमन है।
व्यक्ति भेदम् यी ती दोषाण स भवेद मिष (सुसूअ 21/36)
वायु का उपचार
स्नेह, स्वेद, मृदु संशोध मधुर अम्ल लवण और उष्ण भोजन अभ्यंग मर्दन, वेष्टन (लपेटना), रोक पिली राधा गुद्ध से बने गद्य एवं उष्ण बस्तियाँ, सुखाभ्यास दीपन-पाचन से सिद्ध तेल, अनेक योनि वाले स्नेह विशेषकर मेद, माँस एस, तैल एवं अनुवासन (स्नेह रित) वायु की चिकित्सा है।
पित का उपचार -
- मधुर, तिक्त, कषाय रस वाले भोजन और
-सुगंध, शीतल और प्रिय गंभों का सेवन
गले में मुक्ताओं की माला का धारण
- चन्दन का लेप
शीतल जल की धारायें
-मन को प्रसन्न करने वाले पदार्थ दूध घी और चरचन ये सभी पित्त शमन करते
कफ का उपचार
विधि पूर्वक दिये गये तीक्ष्ण वमन, विरेचन क्षण कटु तिक्त एवं कषाय अन्न का सेवन
- चिरकाल स्थित महा
सम्भोग में प्रीति
रात्रि जागरण अनेक प्रकार के व्यायाम चिन्ता क्ष उपचार और मर्दन करना
चाहिए।
मन, यूम मधु, मेद नाशक औषध, धूम्रपान आदि कफ नाशक है।
आग अग्नि की दुर्बला के पश्चात् भी यदि भोजन किया जाता है तो दुर्बलग्नि भोजन का ठीक से पाचन नहीं कर पाती है अतः उपक्य या अर्धपि आहार ही आम कहलाता है जो शरीर में अनेको बिमारियों को उत्पन्न करता है।
वायु आदि का शोधन काल
में शोधन करना चाहिए वर्षा में संचित पित्त को कार्तिक में ( शरद ऋतु में करना चाहिए
हेमना में संचित कफ को ऋतु में शोधन करना चाहिए औषध सेवन काल मुख से औषधि ग्रहण करने के विभिन्न कालों को
सेवनकाल कहते हैं कुल दस (10) औषध सेवनकाल होते हैं।
1. प्रातःकाल खाली पेट औषध लेना
2. औषध के पीछे अन्न खाना आया
3. भोजन के बाद औषध लेना
4. प्रत्येक ग्रास में मिलाकर भषा लेना
5. भोजन के तत्काल बाद
6. प्रत्येक दो ग्रासों के मध्य में औषध ली जाती है
7.अन्न के साथ या खाली पेट जो बार-बार ली जाती है
8.आहार में मिलाई गयी औषध
9. भोजन के प्रारम्भ में तथा अंत में औषध लेना
10. प्रातः काल भोजन तथा सायकाल भोजन के
उपवास
समय-समय पर व्रतोपवास करते रहने से अग्नि प्रदीप्त रहती है और शरीर स्वस्थ बना रहता हैं.
आयुर्वेद में लंघन को शट उपक्रमों में गिना गया है और उपवास को एक प्रकार का लंघन माना गया है।
आहारव्यवस्था
आहार ग्रहण करने वाले की प्रकृति अथवा रोगावस्था के आधार पर एवं शरीर की दोषिक अवस्था के आधार पर आहार व्यों का चयन कर उचित काल में उचित मात्रा में भोजन ग्रहण किया जाना चाहिए।
1 comment
ITIAN ART is a bronze sculpture 1xbet login of bronze which depicts is titanium expensive the body of edc titanium one of titanium dioxide in food the three human body parts of the Chinese gods, titanium ring