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भारतीय शिक्षण मंडल - Bhartiya Shikshan Mandal

भारतीय शिक्षण मंडल - Bhartiya Shikshan Mandal


तप से उपजा व्रत संकल्प संगठन का कार्य सामूहिक साधना है। इसका सिंहावलोकन भी सामूहिक ही करना होता है। कार्य करते समय आए अनुभवों के आधार पर आगे की योजना बनाई जाती है। इसी दृष्टि से साधक के साधना पथ पर आत्मावालोकन की व्यवस्था है। इसके अंतर्गत नियमित अंतराल पर अपने मार्ग, प्रगति, ध्येय एवं दिशा पर चिंतन किया जाता है। १२ वर्ष के कालखंड को तप कहा जाता है। ऐसे ४ तप पूरे होने पर विस्तृत अवलोकन का अवसर होता है। इसे पूर्ण मंडल कहते हैं।


शिक्षण मंडल के जीवन में भी यह अवसर चल रहा है। इसी दृष्टि से पूरे देश भर के कार्यकर्ता संगठन के विस्तार एवं दृढ़ीकरण में लगे हैं। इस महान कार्य को एक व्रत के रूप में संकल्पबद्ध करने के लिए यह लेखन प्रयास किया गया है। शिक्षण मंडल के भावात्मक इतिहास के साथ ही कार्यप्रणाली आदि का संक्षिप्त विवरण पुस्तिका में है। आगे की योजना हेतु बिंदुवार मानचित्र भी संकल्प के रूप में अंकित करने का प्रयास है। कार्य सर्वव्यापी सर्वस्पर्शी बने तथा साथ ही परिणामकारी भी हो। केवल संख्यात्मक वृद्धि ही नहीं गुणात्मक विकास भी ध्येयगामी हो ऐसा प्रयत्न है।


पुस्तिका मूल रूप से विस्तारक कार्यकर्ताओं को संकल्पना स्पष्टिकरण हेतु संगठन मंत्री श्री मुकुल कानिटकर द्वारा दिए बौद्धिक सत्र के ध्वनिमुद्रण से तैयार की है। आंशिक विस्तारक कु. शांभवी खानवलकर ने ध्वनि से टंकण का दुष्कर कार्य तपपूर्वक किया अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष आचार्य सच्चिदानंद जोशी ने व्यस्तता में से समय निकालकर संपादन किया। बोलचाल की भाषा में शब्दांकित आलेख को सही व्याकरण और साहित्यिक प्रवाह देने का कार्य भी कठोर तप था बौद्धिक में प्रयुक्त उदाहरणों तथा पुनरावृत्ति को निर्मम दृढ़ता से परिष्कृत किया है। इसके बाद राष्ट्रीय कार्यकारिणी बैठक में व्रत संकल्प का प्रारूप वितरित किया गया। सभी के सामूहिक संपादन और सुझावों को सम्मिलित करने के बाद यह पुस्तिका का अंतिम रूप तैयार हुआ है। इस प्रकार यह व्रत संकल्प भी सामूहिक तप का ही परिणाम है पूरा संगठन ही इसका लेखक है। मुखपृष्ठ और मुद्रण सौंदर्य श्री. जिग्नेश साबले और श्री. मिलिंद खोत की तपस्या का फल है।


यह पुस्तिका कार्यकर्ताओं के मार्गदर्शन के लिए तो है ही साथ ही साथ सतत संदर्भ के लिए भी उपयोगी होगी। इस पुस्तिका का सभी भाषाओं में अनुवाद होकर पूरे देश भर में इसका प्रसार हो यह अपेक्षा है। शिक्षण मंडल के राष्ट्रीय अधिवेशन के अवसर पर राष्ट्र तपस्वी संघ के माननीय सरकार्यवाह के करकमलों द्वारा इस पुस्तिका का लोकार्पण हो रहा है यह भी एक सुमधुर संयोग है।


शिक्षण मंडल का प्रकाशन विभाग पुस्तिका का प्रकाशन करते हुए गौरव एवं हर्ष का अनुभव करता है। शीघ्र ही सभी भारतीय भाषाओं में यह पुस्तिका उपलब्ध हो इस प्रार्थना के साथ …


भारतीय शिक्षण मंडल परिवार

कार्तिक शुक्ल अष्टमी, युगाब्द 5120

16 नवंबर 2018





व्रतसंकल्प 

भारतीय संस्कृति एक जिवंत संस्कृति है। भारतीय संस्कृति के जिवंत होने का लक्षण इतिहास में स्पष्ट अंकित है। प्रत्येक आक्रमण का वह विशिष्ट पद्धति से उत्तर देती रही है। जिस समय सांस्कृतिक, धार्मिक स्तर पर मुस्लिम कट्टरता का आक्रमण हुआ, उसी समय पूरे भारत में एक बहुत बड़ा भक्ति का आंदोलन खड़ा हुआ। जब तलवार के बल पर उत्तर पर्याप्त नहीं रहा तब हमने भक्ति से, सांस्कृतिक रूप से उत्तर दिया। पूरे मुगल काल से ब्रिटिश शासन तक, पूर्वोत्तर से लेकर दक्षिण तक, देश के सभी भागों में भक्ति आंदोलन गतिमान रहा। आसाम में श्रीमंत शंकरदेव, पूर्व में चैतन्य महाप्रभु, उत्तर में तुलसी में कबीर दादू, पश्चिम में मीरा- नरसी मेहता, महाराष्ट्र में ज्ञानेश्वर तुकाराम से - लेकर दक्षिण में पुरंदरदास-त्यागराज कण्णगी-तिरुवल्लुवर बसवेश्वर से नारायण गुरु तक यह संत मालिका भारतीय संस्कृति की जिवंतता का लक्षण है। अपनी संस्कृति को समझें


लेकिन गत 150-200 वर्ष के कालखंड में हमारी सांस्कृतिक जिवंतता को नष्ट करने का प्रयास किया गया तथा शिक्षा व्यवस्था को छिन्न भिन्न किया गया। ई. स. 1823 में अंग्रेजों द्वारा किए गए सर्वेक्षण में प्रमाण मिलते हैं कि देश की पूरी जनसंख्या साक्षर थी। ई. स. 1835 में पारित शिक्षा अधिनियम द्वारा अध्ययन अध्यापन हेतु सरकारी अनुमति को अनिवार्य कर दिया गया। उसके पश्चात हमारी शिक्षा व्यवस्था का सर्वव्यापी स्वरूप सिकुड़ता गया। स्वतंत्रता के समय केवल 18 प्रतिशत भारतीय साक्षर थे। 1823 में 100 प्रतिशत साक्षर जनसंख्या 1947 में 18 प्रतिशत रह गयी। मात्र सवा सौ वर्ष में हमारी सर्वसमावेशक, सर्वव्यापी शिक्षा व्यवस्था संकुचित हो गयी। वनवासी, गिरिजनवासी, ग्रामवासी शिक्षा से वंचित हो गए। कुछ जातियों को भी शिक्षा से दूर कर दिया गया।



भारत की स्वतंत्रता के बाद शिक्षा को सर्वव्यापी बनाना प्रथम चुनौती थी। सात दशकों के अथक प्रयासों आज देश कोने-कोने में हमने शिक्षा से के व्यवस्था को पहुंचा दिया। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि भारत में पैदा होने वाले हर 100 बालकों में से 95 बालक ( 95 Out of 100 ) प्राथमिक शिक्षा में प्रवेश ग्रहण करते हैं। प्राथमिक शिक्षा के बाद कुछ मात्रा में छात्र विद्यालय छोड़ देते हैं. ड्रॉपआउट होते हैं, यह वास्तविक है। किंतु अब शिक्षा में प्रवेश लेने के लिए प्रेरित नहीं करना पड़ता। आज गरीब से गरीब माता-पिता भी अपने बच्चे को अच्छी से अच्छी शिक्षा देने का प्रयत्न करते हैं। किंतु शिक्षा के संकुचित होने से भी अधिक हानिकारक उसका विकृत होना था और ऐसी विकृत शिक्षा के कारण मानसिक दासता का निर्माण सांस्कृतिक दासता निर्माण करने वाली शिक्षा इस देश में प्रस्थापित करना अंग्रेजों का सबसे बड़ा षड़यंत्र था। इसलिए वर्तमान भारतीय समाज की सबसे बड़ी विसंगति है अभारतीय शिक्षा | एक ऐसी शिक्षा जो भारतीय संस्कृति, सोच और परंपरा के विपरीत शिक्षित युवाओं का निर्माण कर रही है।



भारतीय शिक्षण मंडल क्यों ?


इस चुनौती का सामना करने हेतु भारतीय शिक्षण मंडल की 1969 में स्थापना हुई। शिक्षा की गुणवत्ता हेतु विषयवस्तु, पद्धति तथा विधि को भारत केंद्रित बनाने के उद्देश्य से इसकी स्थापना की गई ताकि शिक्षित व्यक्ति सांस्कृतिक रूप से अभारतीय ना रहे। 100 प्रतिशत साक्षरता के साथ ही मन वचन-कर्म से भारतीय नागरिक तैयार हो, ऐसी शिक्षा व्यवस्था का निर्माण - संगठन का उद्देश्य है। 26 मार्च, 1969 अर्थात् रामनवमी के दिन देश के 21 मनीषी एक साथ बैठे। देशभर से एकत्रित ये सभी शिक्षा क्षेत्र में समर्पित महान शिक्षाविद थे। पुणे के शिक्षक नेता, संगठक एवं प्रतिनिधि श्री मुकुंदराव कुलकर्णी बैठक के संयोजक थे। वे महाराष्ट्र की विधान परिषद (Member of Legislative Assembly) में शिक्षक विधायक थे। उन्होंने मुंबई में श्री श्रीराम मंत्री जी के घर इन सब शिक्षाविदों को शिक्षा पुनः भारतीय कैसे हो, इस पर विचार करने के लिए एकत्रित किया। शिक्षा हमारी अपनी सांस्कृतिक जड़ों से उपजी और पोषित हो, भारत की ऐतिहासिक अनुभूति से निर्मित हो, इन विषयों पर वर्षों तक कार्य करने वाले अनुभवी वरिष्ठजन बैठक में उपस्थित थे। संघ के तत्कालीन माननीय सरकार्यवाह श्री बालासाहेब देवरस इस बैठक में उपस्थित थे। बैठक में शिक्षा के भारतीयकरण की रूपरेखा बनी और भारतीय शिक्षण मंडल की स्थापना का निर्णय हुआ। 19 अप्रैल, 1969 को भारतीय शिक्षण मंडल का विधिवत पंजीयन हुआ।


पूर्ण मंडल की अवधारणा


आज भारतीय शिक्षण मंडल की स्थापना को 48 वर्ष पूर्ण हो गये हैं। इस आधुनिक कालखंड में अंग्रेजी शिक्षा के पश्चिमी प्रभाव में 25-50-75 ये वर्ष महत्वपूर्ण हो गए हैं। इसलिए 25 वर्ष बाद रजत जयंती तथा 50 वर्ष बाद स्वर्ण जयंती मनाने की प्रथा चल पड़ी है। स्वाभाविक रूप से मंडल भी 2019 में 50 वर्ष पूर्ण होने पर स्वर्ण जयंती मनाए, ऐसा विचार चर्चा में आया। अपने अंदर की अभारतीयता को भारतीयता में परिवर्तित करना ही तो चुनौती है। भारतीय कालगणना में 48 वर्ष का बड़ा महत्व है। किसी भी संकल्प की साधना को निर्बाध (बिना किसी बाधा के) अखंड 12 वर्ष तक करने को 'एक तप' अथवा 'तप पूर्ति' कहा जाता है। ऐसे दो तप होने पर उसे 'अर्ध मंडल' कहते है। और चार तप पूर्ण होने पर उसे 'पूर्ण मंडल' कहते हैं।


पूर्ण चर्चा के उपरांत 23 से 25 दिसंबर 2017 को गुवाहाटी में हुई भारतीय शिक्षण मंडल की प्रांत प्रमुख बैठक में यह अंतिम निर्णय लिया गया कि हम भारतीय दृष्टिकोण से सिंहावलोकन का उत्सव 'पूर्ण मंडल' नाम से मनाएंगे। साथ ही यह भी निर्णय लिया कि युगानुकूलता 'नित्य नूतन, चिर पुरातन भारतीय संस्कृति की विशेषता है। इसी युगानुकूलता का परिचय देते हुए तय किया गया कि 48 से लेकर 50 तक दो वर्ष यह सिंहावलोकन का उत्सव 'पूर्ण मंडल से स्वर्ण जयंती (PMSJ) ' मनाया जाएगा। यह संगठनात्मक आत्मावलोकन, सामूहिक सिंहावलोकन पर्व होगा। इस वर्ष (इ. स. 2018) की रामनवमी से यह उत्सव प्रारंभ किया गया जो अगले दो वर्ष तक चलेगा। आजकल की गणना इ. स. के अनुसार 2020 की रामनवमी तक और भारतीय कालगणना विक्रम संवत् के अनुसार 2075 की रामनवमी से 2077 की रामनवमी तक 'पूर्ण मंडल से स्वर्ण जयंती उत्सव मनाने का निर्णय है। पूर्ण मंडल से स्वर्ण जयंती के समय हमें संगठन का सामूहिक अवलोकन करना है कि मंडल अपने कार्य में कहाँ तक पहुंचा। इस दृष्टि से कुछ प्रश्नों पर विचार करने की आवश्यकता है। जब हम शिक्षा में भारतीयता की बात कहते हैं तो हमें यह भी देखना होगा कि शिक्षा में भारतीयता के किन मूल तथ्यों पर हमारा आग्रह है।



भारतीय मानकों पर शिक्षा


भारत में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति के अंदर भारतीयता, सनातन धर्म, वैदिक संस्कृति, भारतीय संस्कृति जिवंत है। भारतीयता का यह स्वभाव, आचरण व्यवस्था में दृष्टिगत नहीं होता है। उदाहरण के लिए उत्सव, पर्व, धार्मिक कार्यक्रम, विवाहादि सामाजिक कार्यक्रम, नामकरण की विधि, पूजापाठ, गृहप्रवेश, भूमिपूजन आदि करना होता है, तब इन व्यक्तिगत, सामाजिक और धार्मिक कार्यक्रमों के लिए हम भारतीय कालगणना के अनुसार पंचांग में तिथि देखते हैं लेकिन अपने विद्यालय, महाविद्यालय, सरकारी कामकाज आदि में ग्रेगोरियन कैलेंडर प्रयोग करते हैं। व्यक्तिगत जीवन में, समाज में भारतीय कालगणना और व्यवस्था में अवैज्ञानिक अंग्रेजी कालगणना यह विसंगति है। ऐसा ही धर्म के बारे में भी है। समाज आज भी धर्म को मानता है और धर्म से चलता है। एक सामान्य व्यक्ति धर्म को नहीं तोड़ना चाहता। किंतु व्यवस्था में धर्म का कोई मूल्य नहीं। यहां हम धर्म को उपासना पद्धति अथवा अंग्रेजी के religion के रूप में प्रयोग नहीं कर रहे हैं। भारत में कर्तव्य को, स्वभाव को धर्म कहा गया। अपने गुणों के स्वभाव के अनुसार समाज में व्यवहार करना, अर्थात कर्तव्य का पालन करना धर्म है। सनातन धर्म में इसे जीवन-व्यवहार में परंपरा के रूप में प्रस्थापित करने का कार्य हुआ है।


हजारों नहीं, लाखों वर्षों से सनातन धर्म इसी अवधारणा पर टिका हुआ है। लेकिन हमारी शिक्षा पद्धति में धर्म को दिग्भ्रमित करने वाली व्याख्या कर धर्म को शिक्षा से अलग कर दिया गया है। जीवनदृष्टि, सिद्धांत और व्यवहार इन तीन स्तरों पर हमारे ऋषियों ने कार्य किया। सारे चराचर जगत में एक ही चैतन्य कार्य कर रहा है यह एकात्म जीवनदृष्टि है। सब एक है, सब समान है। हमारे यहां 'पांडित्य' की यही परिभाषा है। भगवद्गीता में कहा है 'पंडितः समदर्शिनः अर्थात जो समान रूप से सबको देखता है वह पंडित है। यह जीवन की दृष्टि है एकात्म जीवनदृष्टि। यह जीवनदृष्टि सिद्धांत के रूप में हमने व्यवहार में उतारी। 'आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यतिस' अर्थात जो अपने जैसा ही सारे प्राणिमात्र को देखता है वही वास्तविकता में देखता है। चलते-चलते यदि अनायास ही किसी वस्तु को पैर लग जाए तो संस्कारवश उसे वंदन कर हम क्षमा मांगते हैं। यह जो 'चैतन्य चराचर में, कण-कण में व्याप्त है' वाला सिद्धांत है, उसका व्यवहार है। अत्यंत बीहड़ जंगलों में रहने वाले हमारे वनवासी भाई भले ही वेद पढ़ें भी नहीं होंगे, संस्कृत जानते भी नहीं होंगे किंतु यह जीवनदृष्टि उनके भी व्यवहार में है। उनके अपनी भाषा के मंत्र हैं। बिना प्रार्थना किए वे पेड़ की टहनी भी नहीं तोड़ते क्योंकि उन्हें पता है पेड़ में भी चैतन्य है । हल चलाने से पहले भूमि से अनुमति लेते हैं क्योंकि उसमें भी चैतन्य है। यह सिद्धांत व्यवहार में उतर जाएं ऐसी परंपराओं का निर्माण इस राष्ट्र ने किया इसलिए यह बचा रहा। परंतु आज जीवन में एक है और व्यवहार में अलग है। हर बात में हमें व्यवस्था और समाज भारतीय मानकों के विपरीत चलते हुए दिखाई देते हैं। इसका कारण है हमारी शिक्षा समाज से जुड़ी हुई नहीं है। पूर्ण मंडल से स्वर्ण जयंती समारोह के आयोजनों में 48 वर्ष का सिंहावलोकन करना है कि शिक्षा में भारतीयता लाने का कार्य हमने कितना किया ? समाजव्याप्त भारतीयता के सिद्धांत मानक हमारे पाठ्यक्रम, शिक्षा पद्धति में कितनी मात्रा में हैं।


अनुभवजन्य शिक्षा


भारतीय शास्त्रीय संगीत सीखने के लिए संगीत विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालयों में संगीत की शिक्षा स्वर-ताल के ज्ञान से प्रारंभ होती है। सामान्य रागों का अभ्यास कराया जाता है। स्वरों की अनुभूति हो जाने पर ही संगीत का इतिहास सिखाया जाता है। यह भारतीय शिक्षा पद्धति है। केवल संगीत ही नहीं, भारतीय पद्धति से ज्योतिष सीखना है तो सबसे पहले आपको ग्रहों का पूरा अध्ययन करना होगा। नक्षत्र दर्शन से ज्योतिष विद्या शुरू होती है। पारंपरिक वैद्य के पास वैद्यकी सीखने जाएंगे तो अध्ययन हेतु आयुर्वेद की चरक संहिता या सुश्रुत संहिता नहीं पढ़वाई जाएगी। छह महीने तक तो तीन ऊंगलियां कलाई पर रखकर नाड़ी परीक्षा सीखनी होगी। छह महीने में जब नाड़ी के द्वारा 09


बात, पित्त, कफ का भेद समझ में आने लगेगा तब रोग, मल, सप्तधातु आदि के बारे में अध्ययन प्रारंभ होगा। पहले अनुभूति फिर शरीर रचना (anatomy) आदि का अध्ययन। अनुभूति ही ज्ञान है यह भारतीय शिक्षा शास्त्र का मूल सिद्धांत है। अनुभूति से ही ज्ञान होता है यह भारतीय शिक्षा शास्त्र है। ढाई साल के बच्चे को हम 'A for Apple' सिखाते है। वहां अनुभूति है क्या ? अनुभूति को हमने शिक्षा से पूरी तरह बाहर कर दिया। जो समाज में है, व्यवहार में है, वह व्यवस्था में नहीं है। इसका यह एक उदाहरण है।


भारतीय शिक्षण मंडल का शिक्षा में भारतीयता लाने का अभिप्राय है व्यावहारिक जीवनतत्व शिक्षा व्यवस्था में प्रतिष्ठित करना। इसके लिए हमने 48 वर्षों में क्या कार्य किया? क्या अनुसंधान किया? हमारे और हमारे संगठनात्मक पूर्वजों के किए हुए तप का अवलोकन 'पूर्ण मंडल से स्वर्ण जयंती' में हमें करना है। मुकुंदराव कुलकर्णी, रामस्वरूप भारद्वाज, श्रीराम मंत्री, दीनानाथ बत्रा, लज्जाराम तोमर जी जैसे अपना पूरा जीवन भारतीय शिक्षा शास्त्र के लिए समर्पित करने वाले कार्यकर्ताओं के तप के कारण आज भारतीय शिक्षण मंडल इस उन्नत स्तर पर है। भारतीय शिक्षा का स्वरूप हमने कर्नाटक में 24 साल पहले ई. स. 1994 में मैत्रेयी गुरुकुल की स्थापना की। 27 मार्च, 2018 को इसका अर्ध मंडल का उत्सव हुआ। इसमें श्री श्री रविशंकर जी और परमपूजनीय सरसंघचालक जी भी गए थे। 24 वर्ष पूर्व प्रत्यक्ष गुरुकुल शुरू करने से पहले भारतीय शिक्षण मंडल के विद्वान शिक्षाविदों ने 6 वर्ष तक प्रति सप्ताह बैठकर गुरुकुल के विषय में स्वाध्याय और अध्ययन किया। 6 साल की तपस्या के बाद निकले हुए निचोड़ के आधार पर गुरुकुल की स्थापना हुई। यही वह तप है जिससे भारतीय शिक्षण मंडल पोषित इसलिए आज जब हमने गुरुकुल प्रकल्प के अंतर्गत सारे देशभर के गुरुकुलों को हुआ है। एकत्रित करने का प्रयत्न शुरू किया तब हमें त्वरित अच्छा प्रत्युत्तर मिला। सारे देश के गुरुकुल एकत्रित आए। यह उसी तपस्या और साधना का परिणाम है। उज्जैन में हुए अंतरराष्ट्रीय विराट गुरुकुल सम्मेलन में गुरुकुलों का प्रतिनिधित्व और व्यापकता देखकर सब चकित थे। इस सम्मेलन में पंजीयन हमारी अपेक्षा से कहीं अधिक हुआ। आज गुरुकुलों के संदर्भ में भारतीय शिक्षण मंडल प्रमुख स्रोत संस्था बनकर उभरा। भारतीय शिक्षण मंडल के तप का अधिष्ठान और आने वाले वर्षों में किस प्रकार से व्यवस्थागत स्वरूप प्रदान करना है इसका अवलोकन और योजना बनाना यह 'पूर्ण मंडल में स्वर्ण जयंती' का विषय है।


हमारी शिक्षा के चिंतन और दर्शन में भारतीयता हो, ऐसा हम प्रयास कर रहे हैं। हमारा आग्रह है कि हम हमारे भारतीय मानकों में मोचें। कालगणना करते समय हम अंग्रेजी के कैलेंडर, महीनों और दिनों का प्रयोग करते हैं। जबकि नेपाल जैसा छोटा देश भी अपने आग्रह पर स्वाभिमान के साथ खड़ा है। वहां अभी भी गणना विक्रम संवत् के आधार पर होती है। वहां महीनों के नाम चैत्र वैशाख हैं। वहां साप्ताहिक अवकाश शनिवार को रहता है क्योंकि शनि महाराज को आराम देने की अवधारणा है। हमने रविवार को अवकाश रखा क्योंकि अंग्रेजों ने हमें सिखाया। रविवार सूर्य का दिन है, जो शास्त्रों के अनुसार सबसे अधिक ऊर्जा देने वाला दिन है। लेकिन हम उस दिन अवकाश रखते हैं क्योंकि अंग्रेजों ने इसे प्रारंभ किया था। अपनी चर्च जाने की सुविधा को देखते हुये।



हम अपने देश का नाम भी भूलते जा रहे हैं। हमारे देश का नाम है भारत किसी भी संज्ञा का अनुवाद नहीं होता लेकिन भारत को अंग्रेजी में 'भारत' कहने की बजाय इंडिया कहा गया। हमने भी उसे ही अपना लिया। स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी हम 'भारत' और 'इंडिया' के द्वैत से उबर नहीं पाये हैं।


हमने शिक्षण मंडल में प्रचलित कर दिया कि अंग्रेजी भाषा में भी 'भारत' का ही प्रयोग करेंगे, अंग्रेजों द्वारा दिए गए दासता के प्रतीक उस अंग्रेजी नाम का प्रयोग नहीं करेंगे। तो आज हमारे कार्यकर्ताओं को आदत पड़ गयी।


दिल्ली में 2017 में हुई भारतबोध संगोष्ठी के उद्घाटन में तत्कालीन राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी ने अपने बीस मिनट के अंग्रेजी भाषण में भी 'भारत' का ही प्रयोग किया, India का नहीं। हमने समाज में रूढ़ कर दिया, संविधान बदलेगा तब बदलेगा। उसी प्रकार विक्रम संवत् भी हम समाज में रूढ़ कर सकते हैं। भारतीयता को व्यवहार और व्यवस्था दोनों में स्थापित करना यह भारतीय शिक्षण मंडल की तपस्या है। 


अनुभूति पर आधारित शिक्षा शास्त्र हमारे प्रत्येक विद्यालय, महाविद्यालय में लागू हो, यह भारतीय शिक्षण मंडल का काम है। शिक्षा क्षेत्र में एक बहुत बड़ा दृष्टि परिवर्तन भारतीय शिक्षण मंडल ने 48 वर्षों में किया है। इसका परिणाम आज समाज में दिखाई दे रहा है।


हमारे संगठनात्मक कार्य के पांच सोपान हैं अनुसंधान, प्रबोधन, - प्रशिक्षण प्रकाशन और इन चारों के लिए संगठन इन सबके माध्यम से भारतीय जीवनदृष्टि की पुनः प्रतिष्ठा अपेक्षित है। पूर्ण मंडल के अवसर पर जीवनदृष्टि कितनी भारतीय बनी, इसका आकलन करना है। शिक्षाविदों में भारतीय जीवनदृष्टि विकसित करने का कार्य भारतीय शिक्षण मंडल ने किया है। आज भारतीय शिक्षण मंडल के प्रयासों के कारण ही व्यावसायिक शिक्षा (Vocational) महत्त्वपूर्ण हो गयी। आज उसे कौशल शिक्षा (Skill Education) कहते हैं। अनुभूति पर आधारित शिक्षा होनी चाहिए। अत: विद्यालयी बालको को भी हाथ से काम कर अनुभव प्राप्त करने हेतु व्यवसायों का प्रशिक्षण देना आवश्यक है।


1986 में भारतीय शिक्षण मंडल के प्रयास से नई शिक्षा नीति में यह समाविष्ट किया गया। यह बड़ा दृष्टि परिवर्तन है। मेकॉले ने अपने पिता को लिखे पत्र में कहा था कि हमने नौकर निर्माण करने वाली शिक्षा पद्धति बनाई है। हमने इस दृष्टि में परिवर्तन करने के लिए कहा- 'शिक्षा नौकर बनाने के लिए नहीं, स्वामी बनाने के लिए है।' व्यक्ति सुयोग्य होगा, अपने आप में परिपूर्ण बनेगा, जो चाहे वह कर सकें, ऐसा स्वावलंबी, समर्थ, योग्य नागरिक शिक्षा व्यवस्था तैयार होगा, तो वह केवल नौकरी के पीछे नहीं भागेगा अपितु नौकरी देने वाला बनेगा। यह दृष्टिकोण भारतीय शिक्षण मंडल के प्रयास से आज व्यवस्था में भी आ गया। Start Up India के नाम से उद्यमिता (Entrepreneurship) शिक्षा व्यवस्था का एक प्रमुख अंग बना है। यह दृष्टि परिवर्तन भारतीय शिक्षण मंडल के तपस्वी शिक्षाविदों का शिक्षा व्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान है।


भारतीय विज्ञान परंपरा को लेकर जागरण भी शिक्षण मंडल का लक्ष्य है। भारत के विज्ञान को हम भारतीय ही स्वीकार नहीं करते थे। भारतीय परंपराओं को विज्ञान विरोधी मानने की एक मानसिक दासता आ गयी थी। भारतीय शिक्षण मंडल के प्रयासों से प्राचीन वैज्ञानिकों के बारे में आज स्वीकार्यता हुई है। आर्यभट्ट, भास्कराचार्य, वराहमिहिर, सुश्रुत, चरक आदि के बारे में सर्वप्रथम भारतीय शिक्षण मंडल के कार्यकर्ताओं ने अनुसंधान कर लेखन किया। स्वदेशी विज्ञान के बारे में अनुसंधान हुए। 1969 में स्थापना के तुरंत बाद प्रारंभिक वर्षो में ही 1974-75 में भारतीय शिक्षण मंडल की तरफ से इस प्रकार की पुस्तिकाएं निकाली गई। इस आंदोलन में से 'विज्ञान भारती के नाम से एक नया संगठन खड़ा हो गया। किंतु विषय के दृष्टि परिवर्तन का प्रारंभ भारतीय शिक्षण मंडल ने किया। आज भारत के पांच भारतीय प्रायोगिकी संस्थानों (आय. आय.टी.) में 'संधि' प्रकल्प के अंतर्गत संस्कृत साहित्य में विज्ञान विषय पर शोध हो रहा है। इसलिए वह द्रष्टि जो केवल अपवादात्मक रूप से समाज में ही थी, उसे व्यवस्थागत करने के कार्य में भारतीय शिक्षण मंडल को सफलता प्राप्त हुई।


हिन्दू नवसंवत्सर को मनाने का संगठनात्मक प्रयास भारतीय शिक्षण मंडल ने प्रारंभ किया। अनेक वर्षों तक भारतीय शिक्षण मंडल के संगठन मंत्री, बाद में उपाध्यक्ष भी रहे श्री धर्मनारायण अवस्थी जी हमारे वयोवृद्ध तपस्वी कार्यकर्ता हैं। उनसे पता चलेगा कि राजस्थान, उत्तर प्रदेश, विशाखापट्टनम, पुणे, सोलापुर, सांगली, पूरे भारत में वर्ष प्रतिपदा के दिन हिन्दू नवसंवत्सर के उत्सव सामूहिक रूप से मनाने का काम भारतीय शिक्षण मंडल ने ही प्रारंभ किया। पहला सामूहिक हिन्दू नवसंवत्सर स्वागतोत्सव उदयपुर, राजस्थान में 1978 में हुआ। में


शिक्षण मंडल के अलावा कई संगठन और संस्थाएं अब नवसंवत्सर मना रही हैं। आज यह समाज में रूढ़ हो गया। किंतु उसका प्रारंभ तो शिक्षण मंडल से हुआ। शिक्षा में भारतीय जीवनदृष्टि स्थापित करने हेतु शिक्षण मंडल द्वारा किए हुए तपों में से यह एक है। कार्यक्रमों का स्मरण करने के लिए नहीं, जीवनदृष्टि परिवर्तन का कार्य करने के लिए पूर्ण मंडल का आयोजन है।



'इतिहास की भारतीय जीवनदृष्टि' इस विषय पर सबसे पहले काम भारतीय शिक्षण मंडल ने शुरू किया। हमारे सारे राष्ट्रीय अधिवेशनों में 'भारतीय इतिहास को भारतीय जीवनदृष्टि से देखा जाना चाहिए' इस विषय पर पहले बौद्धिक प्रमुख और बाद में सरसंघचालक रहे मा. सुदर्शन जी के व्याख्यान हुए। 


भारत के इतिहास को पराजय के इतिहास के रूप में न देखते हुए विजय के संघर्ष के इतिहास के रूप में देखना महाराजा पुरुषोत्तम को आजकल भूल अंग्रेजी में एलेझेंडर की डायरी से नाम पढ़कर पोरस कहते हैं। भारतीय नाम तो पुरुषोत्तम था। जैसा हमें पढ़ाया गया, पुरुषोत्तम यदि हार गया होता तो सिकंदर को वापस क्यों जाना पड़ता ? पहली बार भारतीय शिक्षण मंडल के कार्यकर्ताओं ने चर्चा प्रारंभ की कि पुरुषोत्तम तो विजयी हुआ था। हल्दीघाटी की लड़ाई में महाराणा प्रताप पराजित नहीं हुए. यह विषय सबसे पहले राजस्थान में भारतीय शिक्षण मंडल के कार्यकर्ताओं ने उठाया। अब अनुसंधान से यह सिद्ध हुआ कि इस बात के कोई प्रमाण नहीं कि हल्दीघाटी में महाराणा प्रताप की पराजय हुई थी। इतिहास का भारतीय दृष्टि से पुनर्लेखन किया जाए, यह शिक्षण मंडल के सप्तसूत्रों में से एक बिंदु था। आज अखिल भारतीय इतिहास संकलन समिति के नाम से एक पूरा आंदोलन और भारतीय इतिहास दृष्टि से काम करने वाले हम इतिहासकारों का एक दल खड़ा हो गया। इसका मूल कहीं न कहीं भारत शिक्षण मंडल के आंदोलन में है।


आज 'स्वदेशी' एक प्रभावी आंदोलन के रूप में विकसित हुआ है। राष्ट्रीय शिक्षा में स्वदेशी भी एक महत्वपूर्ण अंग है इस विषय पर जनजागरण का काम सबसे पहले भारतीय शिक्षण मंडल ने शुरू किया। 20 वीं शताब्दी के प्रारंभ में स्वामी विवेकानंद की प्रेरणा से लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने स्वतंत्रता आंदोलन में विदेशी वस्तुओं की होली का प्रयोग किया। बंग-भंग आंदोलन में यह एक प्रभावी शस्त्र बना। सावरकर भी इसी माध्यम से स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े। बाद में महात्मा गांधी ने भी स्वदेशी के विषय को खादी के रूप में स्वीकार किया। किंतु वह सारा का सारा विषय राष्ट्रीय शिक्षा के समांतर चला। 19 वीं शताब्दी के अंतिम दशक तथा 20 वीं शताब्दी के प्रथम दशक में भारत में राष्ट्रीय शिक्षा के अनेक प्रयोग हुए और विविध विद्यालय खुले। महर्षि दयानंद ने दयानंद ऍन्ग्लो वैदिक (D.A.V.) संस्थाओं की स्थापना की। महाराष्ट्र में एक बहुत बड़ा राष्ट्रीय शिक्षा का आंदोलन हुआ जिसमें डेक्कन एजुकेशन सोसाइटी, महाराष्ट्र एजुकेशन सोसाइटी नागपुर में न्यू इंग्लिश विद्यालय आदि अनेक प्रकार की। शिक्षा संस्थानों की स्थापना हुई है। पंजाब, हरियाणा, बंगाल आदि सभी जगह हुई। राष्ट्रीय शिक्षा और स्वदेशी का आंदोलन साथ साथ चला जिसका भारत की स्वतंत्रता में बहुत बड़ा योगदान रहा। भगिनी निवेदिता की बहुत सुंदर पुस्तक है Hints on National Education' जिसमें राष्ट्रीय शिक्षा पर अद्भुत सामग्री है। भारतीय शिक्षण मंडल ने जो काम किया, आज वह स्वदेशी जागरण मंच के रूप में एक नए संगठन और आंदोलन के रूप में चल रहा है।


ऐसे अनेक व्यवस्थागतिकरण के मौलिक कार्य भारतीय शिक्षण मंडल ने किए। भारतीय शिक्षण मंडल के इस ऐतिहासिक योगदान को आधार, अधिष्ठान (Foundation) बनाकर 'पूर्ण मंडल से स्वर्ण जयंती' में आगे की योजना बनाने की आवश्यकता है। यह संदेश समाज तक, जन-जन तक पहुंचाने के लिए देश के कोने-कोने में भारतीय शिक्षण मंडल का विस्तार करना है। भारतीय जीवनदृष्टि व्यवस्था का अंग बनें इसलिए प्रत्येक जिले में इकाई खड़ी करनी है। यह जीवनदृष्टि समाज का अंग है।


समाज में व्याप्त जीवन के संस्कार, मूल्य, धर्म, शिक्षा में कहां हैं? शिक्षा में Moral Studies के नाम पर संस्कार नहीं दिए जा रहे शिक्षा में तो हम कपट सिखा रहे हैं इसलिए पढ़ा-लिखा व्यक्ति कपटी हो रहा है। आज भारतीय शिक्षण मंडल के कार्यकर्ताओं के सामने यह चुनौती है कि समाज में व्याप्त संस्कार शिक्षा व्यवस्था में कैसे लागू हो।


दूसरा बिंदु है अनुभूति पर आधारित शिक्षा एक अत्यंत गौरवशाली वैज्ञानिक शिक्षा पद्धति हमारे पास गुरुकुल शिक्षा के रूप में हजारों हजार वर्षों से रही है। इसी से भारत माता सदैव जगगुरु रही है। जहां हमारे पूर्वज गए वहां पर आज भी भारत को गुरु मानते हैं दलाई लामा हाथ जोड़कर कहते हैं, “भारत हमारा गुरु है, हम उसका चेला है। चीन में भगवान सुमेरुपाद की मूर्ति लगी हुई है। वे ऐसे पहले ऋषि थे जो हिमालय पार करके चीन में गए और जिन्होंने मानवता का अर्थात सनातन धर्म का हिंदुत्व का पाठ चीन में पढ़ाया। कम्युनिस्ट चायना में भी सुमेरुपाद की मूर्ति के नीचे आज भी लिखा है 'चीन का गुरु सुमेरुपाद' जिस जापान के उदाहरण देशभक्ति के लिए दिए जाते हैं वहीं जापान कहता है विनम्रता, नमस्कार करना यह सब उसने भारत से ही सीखा है और आगे भी सीखना है। थाईलैंड, भूटान, म्यांमार सब लोग भारत को सम्मान


की दृष्टि से देखते हैं, और भारत...??? भारत हार्वर्ड, स्टेनफोर्ड की तरफ देख रहा है और उनके अंधानुकरण से अपनी शैक्षणिक संस्थाओं को पतन की गर्त में ले जा रहा है।


हमें करना क्या है ?


भारतीय शिक्षण मंडल के सामने पूर्ण मंडल के अवसर पर आगे की दृष्टि से तैयारी करने के लिए एक तो संख्या बल और दूसरा गुणवत्ता, ज्ञान बल, ये दोनों सामर्थ्य इतना बढ़ाने की आवश्यकता है कि समाज उससे मार्गदर्शन लेने को तैयार हो आज का समाज चमत्कार को नमस्कार करता है। शिक्षण मंडल के रूप में हमें अपनी शक्ति का विराट स्वरूप प्रदर्शित करना पड़ेगा। निकट इतिहास में हमने विराट गुरुकुल सम्मेलन, अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों तथा रिसर्च फॉर रिसर्जस फाउंडेशन के माध्यम से आज अपनी विराट शक्ति को दिखाना प्रारंभ किया है। आज समाज हमसे जुड़ रहा है, जुड़ना चाहता है।


हमारे सामने दो चुनौतियां हैं। एक तो अपनी पारंपारिक शिक्षा व्यवस्था को समाज में पुनःस्थापित करना उसे इतना आकर्षक बनाना कि वह उनके लिये शोभाचार (Fashion) बन जाये। कोई बात शोभाचार बन जाती है तो लोग बिना सोचे-समझे उसके पीछे पागल होते हैं। जब शोभाचार हो जाता है तब बिना विचार के सब उसके पीछे पड़ जाते हैं। आज अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में अपने बच्चे को भेजना शोभाचार हो गया। इसलिए गरीब से गरीब व्यक्ति जिसे हिंदी भी बोलनी नहीं आती हिंदी भी बोलनी नहीं आती, अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ाना चाहते हैं। अच्छे-बुरे का विचार नहीं है, शोभाचार बन गया। ऐसे ही गुरुकुल में जाना शोभाचार बनेगा तब सारा समाज उसके पीछे भागेगा। भारत की पारंपारिक शिक्षा व्यवस्था में इतनी गुणवत्ता है कि बहुत कम प्रयासों से उसको शोभाचार बनाया जा सकता है। योग का उदाहरण प्रत्यक्ष है। योग में अंतर्निहित इतनी शक्ति थी कि बहुत थोड़े प्रयासों से विश्व के सारे वैज्ञानिक योग को विज्ञान के रूप में स्वीकार करने लगे। इसलिए 'विश्व योग दिवस' में सारी दुनिया योग करती है। वही संभावना गुरुकुल पद्धति में है। यह इतनी वैज्ञानिक है कि सुव्यवस्थित प्रयास से शोभाचार बन जाएगा तथा उसकी स्वीकार्यता (Acceptance) हो जाएगी।


दूसरी चुनौती है वर्तमान आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में हमारी पारंपारिक शिक्षा व्यवस्था के तत्वों का समावेश करना। केवल कालखंड में बाद में आया इसलिए आधुनिक कहते हैं। अधुना इस संस्कृत शब्द का अर्थ है 'अभी' इसी अधुना से विकसित होने मात्र से वर्तमान शिक्षा पद्धति 'आधुनिक' है। इससे अधिक कुछ विशेष नहीं हैं। हमारा लक्ष्य है एक तो गुरुकुल युगानुकूल बनें और समाज में प्रतिष्ठित हो। नालंदा जैसे बड़े-बड़े गुरुकुल बनें पुनः सारा विश्व गुरुकुल में शिक्षा लेने के लिए आए, वह शोभाचार बन जाए और दूसरी ओर आय. आय. टी. जैसे संस्थान गुरुकुल की शिक्षा पद्धति को अपनाएं। गुरुकुल की अनुभूतिजन्य, लचीली व्यक्तिगत ध्यान देने वाली अध्ययन केंद्रित (Learning centric) आनंद केंद्रित (Joy Oriented) तथा आचार्य केंद्रित (Guide Centric) शिक्षा पद्धति के तत्व यूनिवर्सिटी, पब्लिक और प्राइवेट स्कूलों की शिक्षाविधि (Pedagogy) में समाविष्ट हों। ये दोनों काम हमारी आगामी चुनौती है। इस हेतु हमें संकल्प लेना है। पूर्ण मंडल से स्वर्ण जयंती भारतीय दृष्टिकोण से चलने वाली शिक्षा व्यवस्था को पुनः प्रतिष्ठित करने के लिए कृतिसंकल्प लेने का अवसर है। हमारे कृति संकल्प



१. सर्वव्यापीकरण का संकल्प :


(क) भौगोलिक सर्वव्यापीकरण सबसे पहला कार्य है शिक्षण मंडल को : सभी अर्थों में सर्वव्यापी बनाना भौगोलिक रूप से सभी राज्यों के सभी शासकीय जिलों (revenue districts) में भारतीय शिक्षण मंडल पहुंचाना, यह हमारा संकल्प होना चाहिए। पूरे देश में लगभग 650-700 के बीच में शासकीय जिले हैं। प्रत्येक जिले में शिक्षण मंडल की इकाई बनाने के लिए संकल्प लेना है। भौगोलिक रूप से सर्वव्यापी बनाने का अर्थ है जो अभी भी अछूते प्रदेश और जिले हैं वहां पहुंचना और अधिक से अधिक इकाइयां गठित करना।


(ख) शैक्षिक सर्वव्यापीकरण प्राथमिक शिक्षा के उच्चतर शिक्षा तक जो : विभिन्न स्तर हैं उन सभी स्तरों के कार्यकर्ताओं का संगठन में समावेश। साथ ही शिक्षा की विभिन्न विशेष विद्या शाखाएं जैसे चिकित्सा (Medicine) विधि (Law) कृषि (Agriculture) अभियांत्रिकी (Engineering) आदि में भी संपर्क कर कार्यकर्ता बनाना। पारंपारिक और आधुनिक दोनों में ही सभी प्रकार के शिक्षा संस्थानों तक पहुंचना। शिक्षा जगत में सर्वव्यापीकरण हेतु ‘विश्वविद्यालय इकाई' के गठन का निर्णय किया है। प्रारंभ में पूर्ण मंडल की अवधि में सभी सरकारी विश्वविद्यालयों में इकाई बनाने का लक्ष्य सामने रखा है। (ग) सामाजिक सर्वव्यापीकरण समाज के सभी वर्गों का भारतीय शिक्षण मंडल के कार्य में समावेश स्त्री-पुरुष, जाति वर्ण, उपासना पद्धति के आधार पर समाज में व्याप्त सभी भेदों को ध्यान में रखकर सभी प्रकार के कार्यकर्ताओं का समावेश वनवासी, गिरिजनवासी ग्रामवासी, नगरवासी सभी अपेक्षित हैं। सामाजिक रूप से सर्वसमावेशक ऐसा भारतीय शिक्षण मंडल का रूप विकसित करना।


२. परिणामकारी कार्य का संकल्प :


(क) अनुसंधान प्रकोष्ठ इस प्रकार के कार्यों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य है। अनुसंधान का कार्य। इस विषय में आज समाज को बहुत अपेक्षा है। भारतीय शिक्षण मंडल के प्रति सभी आशा से देख रहे हैं। वर्तमान विषयों में भारतीय जीवनदृष्टि से भविष्योन्मुखी अनुसंधान तथा प्राचीन भारतीय ज्ञान परंपरा में अनुसंधान दोनों स्तरों पर प्रोत्साहन हेतु एक सर्वव्यापी अभियान की आवश्यकता को देखते हुए 'Research for Resurgence Foundation की स्थापना की गई है। इस न्यास द्वारा शासन, विश्वविद्यालय तथा उद्योग जगत में होनेवाले अनुसंधान को देशहित में केंद्रित करने का कार्य किया जाएगा। 2018 जून तक RFRF का 35 विश्वविद्यालयों, 3 संस्थाओं तथा 3 उद्योगों से अनुबंध (MOU) किया जा चुका है। पूर्ण मंडल में अधिक से अधिक विश्वविद्यालयों से जुड़ने का प्रयास किया जाएगा। अनुबंध के बाद इन संस्थानों में अनुसंधान विधी (Research Methodology) पर कार्यशालाओं के आयोजन के साथ ही अन्य अनेक गतिविधियों का संचालन किया जाएगा।


(ख) शैक्षिक प्रकोष्ठ : भारतीय दृष्टिकोण से पाठ्यचर्या और पाठ्यक्रमों का निर्माण शैक्षिक प्रकोष्ठ द्वारा किया जाता है। विश्वविद्यालय स्तर पर ४३ विषयों में अध्ययन समूह (Board of Studies) बनाये गये हैं। प्रबंधन, मनोविज्ञान तथा समाज कार्य विषय के भारत केंद्रित पाठ्यक्रम तैयार कर कुछ विश्वविद्यालयों में लागू किए जा चुके हैं। शालेय स्तर पर भी पूरक एवं वैकल्पिक पाठ्यक्रमों के निर्माण हेतु टोलियाँ बनानी होंगी।


(ग) शालेय प्रकल्प : पारंपारिक शिक्षा पद्धति को समाज में लागू करना इस प्रकल्प का उद्देश है। शालेय प्रकल्प के माध्यम से भारतीयता के व्यावहारिक तत्व को अधिक से अधिक शिक्षा संस्थानों तक पहुंचाने का कार्य किया जाता है। प्रत्येक प्रांत में शालेय प्रकल्प की टोली की रचना करनी होगी शिक्षा संस्थानों हेतु 'गुणवत्ता सुधार आयोजन (सुगुणा) Educational Quality Improvement (EQIP) बनाया गया है। इसके माध्यम से ४ आनंदशालाओं का संचालन किया जाता है। शिक्षकों हेतु 'शिक्षक स्वाध्याय, अभिभावकों के लिए 'अभिभावक उदबोधन', संस्थाचालकों, प्रबंधकों तथा शिक्षाधिकारियों हेतु 'संस्थाचालक परामर्श' तथा छात्र-छात्राओं हेतु 'विद्यार्थी विकसन'। इसके साथ ही संगीत, खेल, शारीरिक शिक्षा, कला, पर्यावरण, स्वच्छता आदि विषयों पर छोटी-छोटी किंतु प्रभावी गतिविधियों का संचालन शालेय प्रकल्प में किया जाता है। मुख्यत: अंग्रेजी माध्यम की पाश्चिमात्य विचार से चलनेवाली संस्थाओं में 'सुगुणा' (EQIP) को ले जाना आवश्यक है।


(घ) गुरुकुल प्रकल्प : गुरुकुल प्रकल्प के अंतर्गत पारंपारिक शिक्षा संस्थानों को पोषित करना है। शालेय प्रकल्प में आधुनिक शिक्षा संस्थानों में पारंपारिक तत्वों को बढ़ाना है। गुरुकुल प्रकल्प मिलकर भारतीयकरण का समग्र लक्ष्य प्राप्त करना। इसके अंतर्गत तीन कार्य किए जाते हैं (1) युनानुकूल गुरुकुल प्रारंभ करने में प्रेरणा एवं परामर्श प्रदान करना (2) पूर्व से संचालित गुरुकुलों को संगठित कर युगानुकूलता की ओर अग्रेसर करना तथा (3) सुयोग्य आचार्यों का संवर्द्धन करना। 28-30 अप्रैल 2018 को उज्जैन में अंतरराष्ट्रीय विराट गुरूकुल सम्मेलन का आयोजन किया गया। 868 गुरुकुलों के प्रतिनिधि सम्मिलित हुए। भारत के साथ ही नेपाल, भूटान, म्यांमार आदि 10 देशों से सहभाग हुआ। अनेक कुलपति, शिक्षाविद, शोधकर्ता भी सम्मेलन के साक्षी बनें। आगामी वर्षों में गुरुकुल को मुख्य धारा की शिक्षा बनाने में इस प्रकल्प की महती भूमिका है।


(च) प्रकाशन विभाग दृष्टि, विचार एवं सिद्धांतों के स्थायित्व हेतु प्रकाशन करना। प्रत्येक प्रांत, इकाई तथा कार्यकर्ता का इसमें योगदान अपेक्षित नियतकालिकों के अधिकाधिक सदस्य बनाना, साहित्य विक्रय की सुगठित व्यवस्था विकसित करना, प्रांत में कम से कम एक वार्षिक प्रकाशन प्रारंभ करना। तथा लेखकों को सूचीबद्ध कर प्रेरित करना।


(छ) महिला प्रकल्प शिक्षा के साथ संस्कार भी आवश्यक है। बिना संस्कारों : की शिक्षा यह शिक्षा ही नहीं है। यदि संस्कारों के साथ शिक्षा देनी है तो सर्वप्रथम गुरु मां है इसलिए महिला प्रकल्प को और प्रभावी बनाना महिला प्रकल्प के अंतर्गत संस्कार दृष्टि का विकास करना अधिक से अधिक माताओं को जोड़कर साप्ताहिक मंडल प्रारंभ करने होंगे।


(ज) युवा आयाम समाज में दृष्टिपरिवर्तन के लिए एक बहुत बड़ा बौद्धिक संघर्ष सामने दिखाई देता है। भारतीय दर्शन व परंपरा वैज्ञानिक और कल्याणकारी होते हुए भी मानसिक दासता शीघ्र और सहजता से समाप्त नहीं होगी। विनम्रता के साथ किंतु दृढ़ता से और विशुद्ध अध्ययन एवं तर्कबुद्धि के साथ संघर्ष करने वाले बौद्धिक योद्धाओं का दल खड़ा करना, जो भारतीय शिक्षा एवं संस्कृति के मूल तत्व को व्यापकता प्रदान कर सकें यह युवा आयाम का कार्य है।


इन सारे कार्यों को दृढ़ करने का संकल्प लेना पड़ेगा। ऐसा करते हैं तो आने वाले 5-7 वर्षों में परिणाम दिख सकता है। सर्वव्यापीकरण संख्यात्मक तथा परिणामकारी कार्य गुणात्मक संकल्प हुआ। इन दोनों आधारों पर संकल्प लेने की आवश्यकता है।


३. कार्यकर्ता निर्माण :


इस सबके लिए जो संकल्प व्यवहार में लेना है वह है अधिक से अधिक कार्यकर्ताओं को जोड़ना इन सभी कार्यों में अन्य किसी संसाधन की की जोड़ना। इन सभी कार्यों में अन्य किसी संसाधन की कमी नहीं पड़ेगी। इसलिये तीसरा संकल्प कार्यकर्ता निर्माण सबसे बड़ा कार्य है।


(क) सदस्यता अभियान अधिक से अधिक कार्यकर्ता निर्माण के लिए हमने संकल्प लिया है कि पूरे देशभर में पांच लाख सदस्य बनाएंगे। अधिक से अधिक लोगों को भारतीय शिक्षण मंडल से जोड़ना यह कार्यकर्ता निर्माण का संकल्प है। अधिक कार्यकर्ता बने अर्थात अधिक लोग समय दें। रोज एक घंटा देने वाले, समाह में एक घंटा देने वाले ऐसे अधिक से अधिक कार्यकर्ता जुड़ें, इस हेतु सदस्यता अभियान चलाना।


(ख) पूर्णकालिक कार्यकर्ता संगठन की रीढ़ की हड्डी है अधिक समय देने : कार्यकर्ता कुछ कुछ समय देने वाले अधिक कार्यकर्ता जोड़ने का वाले कुछ कार्य सदस्यता अभियान से होगा। किंतु अधिक से अधिक समय देने वाले भी कुछ कार्यकर्ता चाहिए। प्रचारक, विस्तारक, वानप्रस्थी, शिक्षाव्रती यह जो पूर्णकालिकों का दल है उन सबकी संख्या भी बढ़ानी है। आज कई उच्चशिक्षित युवा भारतीय शिक्षण मंडल से विस्तारक के रूप में जुड़ रहे हैं। अब इ. स. 2018 में वह संख्या 13 पर पहुंची है। पूर्ण मंडल की अवधि में अपना लक्ष्य है कि ऐसे दो वर्ष, चार वर्ष, पांच वर्ष देने वाले अधिक लोग तथा अधिक समय देने वाले कुछ लोग ऐसे दोनों प्रकार के कार्यकर्ता निर्माण करना।


(ग) अभ्यास वर्ग: सभी स्तरों पर कार्यकर्ताओं के क्षमतावर्धन हेतु अभ्यास वर्ग आयोजित करने होंगे। जिला, प्रांत, क्षेत्र आदि भौगोलिक स्तरों पर अभ्यास वर्गों के साथ ही अलग-अलग आयामों के अभ्यास वर्ग लगाना कार्य जितना बढ़ेगा उतनी ही अधिक क्षमतावान कार्यकर्ताओं की आवश्यकता पड़ेगी। अतः इसकी नियमित एवं सुनियोजित व्यवस्था तथा प्रशिक्षण भी संकल्प का अंग है।


ये सभी पूर्ण मंडल के लिए व्रत संकल्प है। मूल बात यही है कि पूरे भारत में दृष्टि परिवर्तन के लिए हम कार्य कर रहे हैं। शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन के बिना राष्ट्र का बौद्धिक और मानसिक दृष्टि उत्थान संभव नहीं है। इसलिए राष्ट्रीय पुनरुत्थान के चलने वाले विभिन्न कार्यक्रमों की नींव के रूप में भारतीय शिक्षण मंडल कार्य कर रहा है। इस बात को ध्यान में रखते हुए हम 'पूर्ण मंडल से स्वर्ण जयंती के इस कार्यकाल में यह व्रत अपने जीवन में धारण करें, ऐसा व्रत संकल्प सभी को लेना है।


भारत माता पुनः जगद्गुरु के रूप में आसीन हो, विश्व उसके पीछे पंक्तिबद्ध हो, सभी देशों से लोग भारत में शिक्षा ग्रहण करने के लिए आएं, यह जो हमारे मनीषियों का देखा हुआ स्वप्न है उसे साकार करने में यह 'पूर्ण मंडल से स्वर्ण जयंती' का व्रत हमारी कृति में आएं यही व्रत संकल्प है। आईये एक बार पुनः हम संगठन मंत्र का स्मरण करें और अपने कार्य में जुट जाएं :


सं गच्छध्वं सं बदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।

देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते।


(ऋग्वेदसंहिता 10.191.2)


समानो मंत्र: समितिः समानी समानं मनः सह चित्तमेषाम् ।

समानं मंत्रमभि मंत्रये वः समानेन वो हविषा जुहोमि ।।

(ऋग्वेदसंहिता 10.191.3)


समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः

समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ।।

(ऋग्वेदसंहिता 10.191.4)



यह लेख पुर्णतः भारतीय शिक्षण मंडल के पुस्तिका पूर्ण मंडल से स्वर्ण जयंती व्रतसंकल्प से लेकर प्रकाशित किया गया है. इसे प्रकाशित करने का उद्देश्य सिर्फ भारतीय शिक्षण मंडल के गतिविधि, कार्य और ध्येय को ज्यादा से ज्यादा प्रसारित करना हैं. और राष्ट्र के प्रति समर्पण और राष्ट्रवाद से ओत प्रोत युवाओं को भारतीय शिक्षण मंडल से जोड़ना हैं.



- धन्यवाद