संस्कृत व्याकरण में पाणिनीय परम्परा के तीन युग
संस्कृत व्याकरण में पाणिनीय परम्परा के तीन युग
1.प्रथम युग मुनित्रय
2. आचार्य पाणिनि
आचार्य पाणिनि के विषय में पहले ही बताया जा चुका है। पाणिनि की रचनाओं में अष्टाध्यायी या पाणिनीयाष्टक का प्रमुख स्थान है। यह ग्रन्थ संस्कृत भाषा का अनुपम रत्न है। भाषा में इसके जोड़ का व्याकरण नहीं बना पाणिनि ने इस लघुकाय ग्रन्थ में संस्कृत जैसी विस्तत भाषा का पूर्णतया विश्लेषण करने का प्रयास किया है। उनकी विवेचना वैज्ञानिक है, शैली संक्षिप्त, सांकेतिक तथा संयत है। इस ग्रन्थ का क्रम भी अनूठा है। प्रथम अध्याय में विशेष रूप से संज्ञा और परिभाषा प्रकरण हैं। द्वितीय अध्याय में समास तथा विभक्तिप्रकरण, ततीय में कदन्तप्रकरण, चतुर्थ तथा पचम में स्त्रीप्रत्यय और तद्वितप्रकरण है। षष्ठ, सप्तम और अष्टम अध्यायों में सन्धि आदेश तथा स्वरप्रक्रिया आदि के विविध प्रकरण हैं। अष्टाध्यायी के अतिरिक्त धातुपाठ तथा गणपाठ भी आचार्य पाणिनि की कतियाँ हैं। उणादिसूत्र को भी पाणिनिकत बतलाया जाता है। वस्तुतः यह पाणिनि की रचना नहीं है। हाँ, पाणिनि ने उणादयो बहुलम् 3/3/1′ सूत्र द्वारा उणादि सूत्रों की प्रामाणिकता अवश्य स्वीकार की है। इसी प्रकार पाणिनीय शिक्षा तथा लिङ्गानुशासन नामक लघुग्रन्थों को भी पाणिनि की रचना मानना विवादास्पद ही है। इनके अतिरिक्त यह भी कहा जाता है कि पाणिनि ने पाताल – विजय या जाम्बवती- विजय नामक एक महाकाव्य की रचना की थी, जो आज उपलब्ध नहीं है।
कात्यायन (500 ई० पू० से 300 ई० पू० के मध्य )
कात्यायन मुनि व्याकरण शास्त्र में
वार्त्तिककार के नाम से प्रसिद्ध हैं। उन्हें वररुचि नाम से भी जाना जाता है। उनके
समय का निर्धारण भी विद्वानों की चर्चा का विषय रहा है। प्रायः आधुनिक विद्वानों
ने उनका समय 500 ई० पू० तथा 300 ई० पू० के मध्य माना है। पं० युधिष्ठिर मीमांसक का मत है कि उनका समय
विक्रम पूर्व 2700 वर्ष है। एक वार्तिक की व्याख्या कर हुए
महाभाष्यकार कहते हैं। ‘प्रियतद्धिताः दाक्षिणात्याः । इस
कथन से यह अनुमान किया जाता है कि वार्तिककार कात्यायन दाक्षिणात्य थे।
कात्यायन का भाषाविषयक ज्ञान अगाध था। उनकी
दृष्टि एक समीक्षक की दृष्टि थी। उन्होंने पाणिनि के सूत्रों की दृष्टि से आलोचना
करके उनकी कमियों को दूर करने का प्रयास किया है तथा अष्टाध्यायी के लगभग 1500 सूत्रों पर लगभग 4000 वार्त्तिक लिखे हैं।
पाणिनि- व्याकरण के विकास और पारिष्कार
में कात्यायन का महत्त्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने पाणिनीय व्याकरण को अधिक
तथ्यानुकूल एवं समयानुकूल बनाने का प्रयास किया है तथा इसकी अपूर्णता को दूर किया
है। वार्त्तिककार के वचनों में भाषा के विकास की झलक देखी जा सकती है। उनकी आलोचना
में अनुसंधान की प्रवृत्ति दष्टिगोचर होती है। वार्त्तिककार की इस प्रवत्ति में
किसी दुर्भावना की खोज करना उचित नहीं प्रतीत होता । डा० वेलवल्कर का यह मन्तव्य
नितान्त सत्य है कि ‘कात्यायन के वार्त्तिकों
का लक्ष्य पाणिनि के सूत्रों में संशोधन और परिवर्धन है।
पतंजलि ( २०० ई० पू० तथा प्रथम ई० शती के मध्य )
पतजलि ने महाभाष्य नामक ग्रन्थ की रचना
की है अतः वे महाभाष्यकार के नाम से प्रसिद्ध हैं। उनका समय भी विद्वानों के विवाद
का विषय रहा है। कुछ विद्वानों के अनुसार उनका समय ईसा की प्रथम शती है। डा०
वेलवल्कर ने उनका समय 150 ई० पू० माना है। इस मत
का आधार यह है महाभाष्यकार ने एक सूत्र की व्याख्या में लिखा है ‘इह पुष्यमित्रं याजयामः’ (यहाँ) पुष्यमित्र को यज्ञ
कराते हैं)। इस प्रयोग से विदित होता है कि पतजलि ने पुष्पमित्र को यज्ञ कराया था।
फलतः वे पुष्यमित्र के समकालीन थे । इतिहासकारों ने पुष्यमित्र का समय 150 ई० पू० माना है। अतः पतजलि का समय भी यही है। इसके अतिरिक्त अन्य
प्रमाणों से भी इस मत की पुष्टि की गई है। किन्तु युधिष्ठिर मीमांसक इस मत को
स्वीकार नहीं करते। उनका विचार है कि भारतीय गणना के अनुसार पुष्यमित्र का समय 1200 ई० पू० के लगभग होना चाहिए। इसलिए पतजलि का समय भी वही होगा।
पतजलि को शेषनाग का अवतार माना जाता है।
अतः कहीं-कहीं उनके लिए फणिभत्, अहिपति इत्यादि
श्शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। उन्होंने अपने मत प्रकट करते हुए ‘गोनर्दीय’ शब्द का प्रयोग किया है- ‘गोनर्दीयस्त्वाह। इससे विदित होता है। वे गोनर्द प्रदेश के रहने वाले थे।
व्याख्याकारों का अनुमान है कि जहाँ गाय-बैल अधिक हष्ट-पुष्ट होते हैं अतः विशेष
रूप से नाद करते हैं (आधुनिक पंजाब और हरयाणा आदि) सम्भवतः यही प्रदेश पतंजलि का
निवास स्थान रहा होगा। पतजलि ने पाणिनि के मुख्य मुख्य सूत्रों तथा कात्यायन के
वार्त्तिकों की सोदाहरण व्याख्या की है। पाणिनि के प्रति उनकी अत्यधिक श्रद्धा
प्रकट होती है। उन्होंने पाणिनि के कतिपय सूत्रों का प्रत्याख्यान भी किया है,
किन्तु वहाँ लाघव एवं तथ्य निरूपण की दृष्टि ही रही है। पतंजलि के
मतानुसार जिस भगवान् पाणिनि का एक वर्ण भी निरर्थक नहीं हो सकता, भला उसके दोष-दर्शन का दुस्साहस कैसे किया जा सकता है? वार्त्तिककार के वार्त्तिकों की भी महाभाष्यकार ने व्याख्या की है उनकी
उपयोगिता पर विचार भी किया है। साथ ही सूत्रकार एवं वार्त्तिककार के वचनों की
समीक्षा करते हुए अपना निर्णय भी दिया है। पाणिनीय व्याकरण में महाभाष्य के
मन्तव्य सबसे अधिक प्रामाणिक माने जाते हैं। यथोत्तरं मुनीनां प्रामाण्यम्’
इस न्याय के अनुसार पाणिनि के वचनों से भी अधिक पतजलि के वचन
प्रामाणिक हैं। वस्तुतः पाणिनीय व्याकरण के परिनिष्ठित रूप का निर्धारण करना पतजलि
का ही कार्य है।
द्वितीय युग
महाभाष्य के साथ-साथ पाणिनि व्याकरण का
प्रथम युग समाप्त हो गया। ईसा की सातवीं शतशब्दी में फिर अष्टाध्यायी तथा महाभाष्य
पर कुछ सरल टीका ग्रंथ लिखे जाने लगे। यहीं से द्वितीय युग का प्रारम्भ हुआ समझना
चाहिए। इस युग में पाणिनि व्याकरण पर अनेक टीका ग्रन्थ लिखे गये। भर्तहरि ने
महाभाष्य पर टीका लिखी। ‘काशिका’ पर जिनेन्द्रबुद्धि ने ‘न्यास’ नामक ग्रन्थ लिखा तथा हरदत्त ने ‘पदमजरी’ नामक व्याख्या की। इस युग में ही पाणिनि व्याकरण का दार्शनिक विवेचन का
प्रारम्भ हो गया। भर्तहरि ( 650 ई०) ने ‘वाक्यपदीय’ नाम का ग्रन्थ लिखकर इस विवेचना का
श्रीगणेश किया। इस युग की अन्तिम रचना कैयट की प्रदीप नामक टीका कही जा सकती है जो
महाभाष्य पर लिखी गई सुन्दर टीका है।
भर्तहरि – (सप्तम शताब्दी)
भर्तहरि का संस्कत-व्याकरण में अत्यन्त
उच्च स्थान है। व्याकरण के मुनित्रय के पश्चात् उनकी ओर ही दष्टि जाती है। फिर भी
उनके विषय में हमारी जानकारी बहुत ही कम है।
भर्तहरि का समय भी अनिश्चित सा ही है।
अनेक विद्वान् इत्सिंग नामक चीनी यात्री के लेख का अनुसरण करके भर्तहरि का समय
सप्तमी शती ई० का उत्तरार्ध मानते हैं। भारतीय परम्परा के अनुसार भर्तहरि महाराज
विक्रमादित्य के भाई थे। युधिष्ठिर मीमांसक ने इत्सिंग के लेख की भूल की ओर संकेत
करते हुए युक्ति एवं प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि
भर्तहरि का समय ईसा से कई शतशब्दी पर्व होना चाहिए।
भर्तहरि के जीवनवत्त के विषय में कुछ
किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं। कुछ प्रामाणिक विवरण भी मिलता है। वाक्यपदीय पर लिखी
हुई पुण्यराज की टीका से विदित होता है कि भर्तहरि के गुरू वसुराज थे। ‘प्रणीतो गुरुणास्माकमयमागम संग्रह: इस श्लोक की अवतरणिका में पुण्यराज ने
लिखा है- ‘तत्र भगवता वसुरातगुरुणा ममायमागमः संज्ञाय
वात्सल्यात् प्रणीतः । इत्सिंग के विवरण के अनुसार वाक्यपदीय का रचयिता भर्तहरि
बौद्ध था उसने सात बार प्रव्रज्या ग्रहण की थी। किन्तु वाक्यपदीय के अनुशीलन से यह
स्पष्ट है कि भर्तहरि वैदिक मत के अनुयायी थे। एक स्थान पर उन्होंने लिखा है- वेदशास्त्राविरोधी
च तर्कश्चक्षुरपश्यताम्’ इसी प्रकार अन्य सन्दर्भों में भी
उनकी वेद के प्रति आस्था दिखलायी देती है।
भर्तहरि की रचनाएँ
संस्कृत वाङ्मय में भर्तहरि के नाम से
अनेक ग्रन्थ मिलते हैं जैसे महाभीष्यदीपिका, वाक्यपदीय
नीतिशतक आदि शतकत्रय, भट्टिकाव्य और भागवत्ति नामक
अष्टाध्यायी की एक प्राचीन वत्ति । इनके अतिरिक्त वेदान्तसूत्रवत्ति आदि कतिपय
अन्य ग्रन्थों का भी भर्तहरि से सम्बन्ध जोड़ा जाता है।
युधिष्ठिर मीमांसक ने यह सिद्ध किया है
कि वाक्यपदीय तथा महाभाष्यदीपिका के रचयिता एक ही भर्तहरि हैं,
भट्टिकाव्य तथा भागवत्ति के कर्त्ता उससे भिन्न हैं, किच भट्टिकाव्य एवं भागवत्ति के रचयिता भी परस्पर भिन्न ही हैं। इस प्रकार
तीन भर्तहरि हुए हैं, यह परिणाम निकलता है। जहाँ तक शतकत्रय
का प्रश्न है, उसके विषय में यह निश्चित नहीं किया जा सका है
कि यह किस भर्तहरि की रचना है।
महाभाष्यदीपिका
महाभाष्य पर लिखी गई एक विस्तृत व्याख्या
थी इत्सिंग के अनुसार इसका परिमाण 25000
श्लोक के बराबर था। यह व्याख्या
अभी तक पूर्ण रूप से उपलब्ध नहीं हो सकी
है। इसके उद्धरण अनेक ग्रन्थों में मिलते हैं। भर्तहरि ने वाक्यपदीय ब्रह्मकाण्ड
की स्वोपज्ञ टीका में भी इसकी ओर संकेत किया है- ‘संहितसूत्र
भाष्यविवरणे बहुधा विचारितम् । आधुनिक युग में डा० कीलहार्न ने महाभाष्यदीपिका का
प्रथमतः परिचय दिया है। जर्मनी में बर्लिन के पुस्तकालय में महाभाष्यदीपिका के एक
अंश की हस्तलिपि विद्यमान है। इसकी फोटो कापी लाहौर तथा मद्रास के पुस्तकालयों में
भी है। पं० ब्रह्मदत्त जिज्ञासु ने इसका सम्पादन प्रारम्भ किया था।
वाक्यपदीय
यह व्याकरण दर्शन का ग्रन्थ है इसके तीन
काण्ड हैं- ब्रह्मकाण्ड, वाक्यकाण्ड, प्रकीर्णकाण्ड । इसमें समस्त विश्व को शशब्दब्रह्म का विवर्त्त माना गया
है, स्फोट रूप श्शब्द का विशद वर्णन किया गया है तथा व्याकरण
के विविध विषयों का प्रक्रिया एवं अर्थ की दृष्टि से विवेचन किया गया है वाक्यपदीय
के ब्रह्मकाण्ड के कई संस्करण प्रकाशित हुए हैं शेष वाक्यपदीय भी प्रकाशित हुआ है
अभी कुछ समय पूर्व वाक्यपदीय का टिप्पणी सहित अंग्रेजी अनुवाद भी प्रकाशित हुआ है।
इस प्रकार भर्तहरि केवल महाभाष्य के
व्याख्याकार ही नहीं है। उनका विशिष्ट महत्व तो इसमें है कि उन्होंने
व्याकरण-दर्शन के स्वरूप को व्यवस्थित किया है। महाभाष्य में जो व्याकरण-दर्शन के
मन्तव्य यत्र-तत्र कहीं संकेत रूप में तथा कहीं स्पष्ट रूप मे विद्यमान थे,
उनका क्रमबद्ध वैज्ञानिक विश्लेषण प्रथमतः भर्तहरि ने ही किया है।
अपने इस मौलिक कार्य के कारण भर्तहरि का सदा आदरपूर्वक स्मरण किया जाता रहेगा।
ततीय युग
ततीय युग में पाणिनि के अध्ययन की दृष्टि
बदल गई। विषय विभाग के अनुसार अष्टाध्यायी के सूत्रों की व्यवस्था की जाने लगी ।
वास्तव में इस युग में शशब्द सिद्धि की प्रक्रिया पर अधिक बल दिया जाने लगा और सूत्रों
के विवेचन पर कम । इस दिशा में सर्वप्रथम प्रयास विमल सरस्वती (1350 ई० ) का था जिन्होंने ‘रूपमाला’ लिखी। इसी दष्टि से रामचन्द्र ( 15 वीं शती) ने
प्रक्रिया कौमुदी लिखी। प्रक्रिया युग में सबसे महत्वपूर्ण स्थान भट्टोजिदीक्षित
का है। इस समय के व्याकरण के दार्शनिक विवेचन सम्बन्धी ग्रन्थों में वैयाकरण –
भूषण’ उल्लेखनीय है जिसे भट्टोजिदीक्षित के
भतीजे कौण्डभट्ट ने लिखा था ।
भट्टोजिदीक्षित- (16 वीं शताब्दी ई० के लगभग)
भट्टोजिदीक्षित महाराष्ट्रीय ब्राह्मण
थे। इनके पिता का नाम लक्ष्मीधर था । वैयाकरण- भूषण के लेखक कौण्डभट्ट इनके छोटे
भाई रङ्गोजिभट्ट के पुत्र थे। प्रौढ़ – मनोरमा
की टीका ‘शब्दरत्न’ के लेखक हरिदीक्षित
इनके पौत्र थे ।
पण्डितराज जगन्नाथ कत ‘प्रौढ़मनोरमा-खण्डन’ नामक गन्थ से विदित होता है कि भट्टोजिदीक्षित ने नसिंह के पुत्र शेषकष्ण से व्याकरण शास्त्र का अध्ययन किया था। भट्टोजिदीक्षित ने ‘श्शब्दकौस्तुभ’ में शेषकष्ण के लिए गुरू शशब्द का प्रयोग भी किया है। एक अन्य स्थान पर इन्होंने अप्पथाय दीक्षित को भी नमस्कार किया है। (व्या० शा० का इतिहास प० 447 ) | वेलवल्कर ने भट्टोजिदीक्षित का समय 1600-1650 ई० माना है। कुछ विद्वान् इनका समय 1580 ई० (1637 वि सं०) के लगभग मानते हैं। पं० युधिष्ठिर मीमांसक ने कतिपय प्रमाणों के आधार पर यह निर्धारित किया है कि इनका जन्म काल वि० सं० की सोलहवीं शतशब्दी का प्रथम दशक मानना चाहिए ।
भट्टोजिदीक्षित की कृतियाँ
भट्टोजिदीक्षित ने अनेक ग्रन्थ लिखे थे।
इन्होंने अष्टाध्यायी पर ‘श्शब्दकौस्तुभ नामक एक
वत्ति लिखी थी। आज इस वत्ति के प्रारम्भ के ढाई अध्याय तथा चतुर्थ अध्याय ही
उपलब्ध हैं। यह ग्रन्थ किसी समय अत्यन्त महत्वपूर्ण समझा जाता रहा होगा। इसलिए इस
पर अनेक टीकाएँ भी लिखी गई थी। सम्भवतः पण्डितराज जगन्नाथ ने कौस्तुभ-खण्डन’
नामक ग्रन्थ भी लिखा था।
सिद्धान्तकौमुदी या वैयाकरण सिद्धान्तकौमुदी
भट्टोजिदीक्षित की कीर्ति का प्रसार करने वाला मुख्य ग्रन्थ है। यह ‘श्शब्द कौस्तुभ’ के पश्चात् लिखा गया था । भट्टोजिदीक्षित ने स्वयं ही इस पर प्रौढ़मनोरमा नाम की टीका लिखी है। सिद्धान्तकौमुदी को प्रक्रिया पद्धति का सर्वोत्तम ग्रन्थ समझा जाता है। इससे पूर्व जो प्रक्रिया गन्थ लिखे गये थे उनमें अष्टाध्यायी के सभी सूत्रों का समावेश नहीं था। भट्टोजिदीक्षित ने सिद्धान्तकौमुदी में अष्टाध्यायी के सभी सूत्रों को विविध प्रकरणों में व्यवस्थित किया है, इसी के अन्तर्गत समस्त धातुओं के रूपों का विवरण दे दिया है तथा लौकिक संस्कृत के व्याकरण का विश्लेषण करके वैदिक प्रक्रिया एवं स्वर प्रक्रिया को अन्त में रख दिया है। भट्टोजिदीक्षित ने काशिका, न्यास एवं पदमजरी आदि सूत्रक्रमानुसारिणी व्याख्याओं तथा प्रक्रियाकौमुदी और उसकी टीकाओं के मतों की समीक्षा करते हुए प्रक्रिया पद्धति के अनुसार पाणिनीय व्याकरण का सर्वाङ्गीण रूप प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। उन्होंने आवश्यकतानुसार परिभाषाओं, वार्त्तिकों तथा भाष्येष्टियों का भी उल्लेख किया है। उन्होंने मुनित्रय के मन्तव्यों का सामजस्य दिखाया है तथा महाभाष्य का आधार लेकर कुछ स्वकीय मत भी स्थापित किये हैं। साथ ही प्रसिद्ध कवियों द्वारा प्रयुक्त किन्हीं विवादास्पद प्रयोगों की साधुता पर भी विचार किया है। मध्ययुग में सिद्धान्तकौमुदी का इतना प्रचार
एवं प्रसार हुआ कि पाणिनि व्याकरण की
प्राचीन पद्धति एवं मुग्धबोध आदि व्याकरण पद्धतियाँ विलीन होती चली गई। कालान्तर
में प्रक्रिया पद्धति तथा सिद्धान्तकौमुदी के दोषों की ओर भी विद्वानों की दृष्टि
गई किन्तु वे इसे न छोड़ सके ।
इनके अतिरिक्त भट्टोजिदीक्षित का ‘वेदभाष्यसार’ नामक ग्रन्थ भी प्रकाशित हुआ है
(भारतीय विद्याभवन, बम्बई) । यह ऋग्वेद सायणभाष्य का सार है।
इसकी भूमिका में भट्टोजिदीक्षित की 34 कतियों का उल्लेख किया
गया है। इनमें धातुपाठ निर्णय नामक ग्रन्थ भी है। हस्तलिपियों में इनकी ‘अमरटीका’ नामक कति उपलब्ध हुई है। पाणिनीय व्याकरण
में भट्टेजिदीक्षित का महत्त्वपूर्ण स्थान है। पाणिनि-व्याकरण पर उनका ऐसा अनूठा
प्रभाव पड़ा है कि महाभाष्य का महत्त्व भी भुला दिया गया है। यह समझा जाने लगा है
कि सिद्धान्तकौमुदी महाभाष्य का द्वार ही नहीं है अपितु महाभाष्य का संक्षिप्त
किन्तु विशद सार है। इसी हेतु यह उक्ति प्रचलित है:
कौमुदी यदि कण्ठस्था तथा भाष्ये परिश्रमः
। कौमुदी यद्यकण्ठस्था वथा भाष्ये परिश्रमः ।।
प्रक्रिया के युग को शास्त्रार्थ के
क्षेत्र में प्रविष्ट कराने वालों में नागेश भट्ट का नाम अग्रगण्य है। इनकी
प्रतिभा अनूठी थी। इनका विविध शास्त्रों पर समान अधिकार था। उन्होंने व्याकरण के
क्षेत्र में नव्य-न्याय की शैली का प्रवेश किया तथा अनेक मौलिक एवं व्याख्या
ग्रन्थों की रचना की ।
नागेश भट्ट ( 17 वीं तथा 18 वीं शती ई०)
नागेश भट्ट या नागोजि भट्ट के जीवन वत्त
के विषय में बहुत कम ज्ञात हो सका है। जनश्रुति के अनुसार वे महाराष्ट्र के एक
ऋग्वेदी ब्राह्मण थे। नागेश भट्ट का समय 17 वीं
शतशब्दी ई० के अन्त तथा 18 वीं शतशब्दी ई० के आरम्भ में है।
(विशेष द्रष्टव्य सं० व्या० का इतिहास)
नागेश भट्ट की व्याकरण सम्बन्धी रचनाएँ
हैं महाभाष्यप्रदीपोद्योत, लघु शशब्देन्दुशेखर,
बहच्छब्देन्दुशेखर, परिभाषेन्दुशेखर, लघुमजूषा, परमलघुमजूषा और स्फोटवाद ।
सिद्धान्तकौमुदी पर अन्य भी अनेक टीकायें
लिखी गई। उनमें परिव्राजकाचार्य ज्ञानेन्द्र सरस्वतीकत ‘तत्त्वबोधिनी’ विशेष महत्त्वपूर्ण है। किन्तु
छात्रों की दृष्टि से ‘बालमनोरमा’ नामक
टीका अधिक उपयोगी है।
वरदराज लघुसिद्धान्त कौमुदी
पाणिनि- व्याकरण में बालकों का प्रवेश
कराने के लिए भट्टोजि के शिष्य वरदाजाचार्य ने लघुकौमुदी तथा मध्यकौमुदी का
निर्माण किया है। लघुकौमुदी मे व्याकरण प्रक्रिया का सभी अपेक्षणीय विवरण वरदराज
ने दिया है, यह सिद्धान्तकौमुदी का संक्षिप्त
हुए भी एक विलक्षण कति है। यहाँ पर
लघुकौमुदी का ही अधिकांश भाग दिया जा रहा है। जहाँ सिद्धान्तकौमुदी में पाणिनि के
लगभग सभी सूत्रों को लिया गया है, वहाँ लघुकौमुदी में
केवल उन्हीं सूत्रों को लिया गया है जो व्यावहारिक ज्ञान के लिए उपयोगी हैं।
वैदिकी प्रक्रिया और स्वर प्रक्रिया को सर्वथा छोड़ दिया गया है।
पाणिनि व्याकरण के अध्ययनार्थ ज्ञातव्य बातें
डा० श्रीनिवास शास्त्री ने पाणिनि
व्याकरण के अध्ययनार्थ निम्नलिखित बातों को महत्त्वपूर्ण माना है।
प्रत्याहार जब आदि के अक्षर का अन्त के
इत्संज्ञक के साथ ग्रहण किया जाता है उसके द्वारा आदि तथा मध्य के समस्त
अक्षरों का बोध होता है तो उसे
प्रत्याहार कहते हैं। ये प्रत्याहार विशेषकर वर्णमाला के वर्णों का बोध कराने के
लिए माहेश्वरसूत्रों के आधार पर बनाए गए हैं, जैसे
अइउण् । 1।
ऋलक। 2। एओड् । 3 । ऐऔच् । 4। हयवरट् । 5 । लण् । 6
अमङणनम् | 7 | झभञ् | 8 | घढधष् |
9 | जबगडदश् 10 खफछठथचटतव् । 1 । कपय | 12 शषसर 13 हल् |
14 ।।
ये 14
माहेश्वरसूत्र माने जाते हैं। इन सूत्रों के आधार पर अण आदि-42 प्रत्याहार बनते हैं। इन सूत्रों में अन्तिम हल् (व्यजन) की इत्संज्ञा
होती है। आदि अक्षर को इत्संज्ञक के साथ मिलाकर प्रत्याहार बनता है, जैसे ‘अइउण्’ में अण्
प्रत्याहार बनता है जो अ, इ, उ,
का बोध कराता है। इसी प्रकार अन्य प्रत्याहारों के विषय में जानना
चाहिए; जैसे तिङ्
प्रत्याहार है,
यहाँ आदि ‘ति’ का अन्तिम
इत संज्ञक ड़ के साथ मिलाकर ‘तिङ्’ बनता
है और इससे क्रिया में लगने वाले 18 (9 परस्मैपद + 9 आत्मनेपद) प्रत्ययों का बोध होता है। वर्णमाला के 42 प्रत्याहार ये हैं- (अकारादि क्रम से ) ।
2. इत्संज्ञक-अष्टाध्यायी में निम्न
वर्णों की इत्संज्ञा की गई है (1) अन्त का हल, ( 11 )
उपदेश में अनुनासिक अच् (स्वर), (III) प्रत्यय
के आदि में आने वाले चवर्ग, टवर्ग तथा षकार (IV) तद्धितभिन्न प्रत्ययों के आदि में आने वाला लकार, शकार
तथा क वर्ग (V) धातु के आदि जि टु डु इत्संज्ञक का लोप हो
जाता है किन्तु लोप हो जाने पर भी उसके उपलक्षण मानकर कुछ कार्य हो जाया करता है।
जैसे ‘गर्गादिभ्यो यञ् 4.1.105’ से यञ
प्रत्यय होता है जिसमें ञ इत् संज्ञक है अतः यञ् प्रत्यय ञित है, इसके जित होने से आदि को वृद्धि होती है और ‘गार्ग्य:’
रूप बनता है। ये इत्संज्ञक ‘अनुबन्ध’ कहलाते हैं और इनके कारण व्याकरण में बड़ा लाघव हो गया है।
3. अधिकार- कुछ सूत्र ऐसे बनाये गये
हैं जो यह बतलाते हैं कि अमुक सूत्र से अमुक सूत्र तक यह प्रत्यय होगा या यह कार्य
होगा। ये अधिकार सूत्र कहे जाते हैं। जैसे- ‘कारके’ अथवा ‘प्राग्दिशो विभक्तिः’ इत्यादि
।
4. अनुवत्ति लाघव के लिये पाणिनि ने
ऐसा किया है कि एक (पूर्व) सूत्र में कोई एक पद रख दिया, अग्रिम
सूत्रों में जहाँ उस पद की आवश्यकता हुई पूर्वसूत्र से लेकर अन्वय कर लिया गया।
पूर्व सूत्रों से अग्रिम सूत्रों में पद के इस अनुवर्तन को ही अनुवत्ति कहते हैं।
सामान्यतः यह अनुवत्ति एक सूत्र से निकट वाले अग्रिम सूत्र में जाती है और फिर
क्रमशः आगे के सूत्रों में की जाती है किन्तु कभी-कभी बीच के सूत्रों में किसी पद
की अनुवत्ति नहीं होती तथा एकदम आगे के (व्यवहित) सूत्र में हो जाती है। उसे
मण्डूकप्लुति या मण्डूकप्लुप्या अनुवत्ति कहते हैं ।
5. अपकर्ष- जहाँ आगे के सूत्र से पूर्व
सूत्र में किसी पद को खींच लिया जाता है अर्थात् अन्वित किया जाता है, वहाँ अपकर्ष कहा जाता है।
6. सन्धिविषयक शशब्द – (i) एकादेश जहाँ दो वर्णों को मिलाकर एक रूप हो जाता है वह एकादेश कहलाता है
जैसे अ + इ = ए एकादेश होता है। (ii) पररूप-जहाँ पूर्व तथा
पर अक्षर को मिलाकर परवर्ण हो जाता है वहाँ पररूप कहलाता है, जैसे- प्र + एजते = प्रेजते, यहाँ अ ए ए होता है। (iii)
पूर्वरूप-जहाँ पूर्व तथा पर वर्ण के मिलने पर पूर्ववर्ण हो जाता है
वह पूर्वरूप कहलाता है; जैसे-हरे + अव = हरेव, यहाँ ए + अ = ए होता है। (iv) प्रकतिभाव- जहाँ
वर्णों को प्राप्त होने वाला कोई विकार नहीं होता, वह
प्रकतिभाव (जैसा का तैसा रहना) कहलाता है; जैसे-गो + अग्रम्
= गो अग्रम्; यहाँ विकल्प से ओ + अ = ओ + अ ही रहता है
पूर्वरूप आदि नहीं होता।
7. कुछ ज्ञातव्य संज्ञाएँ
(i) अङ्ग. जिस धातु या प्रातिपदिक से
प्रत्यय का विधान किया जाता है उसे अङ्ग कहते हैं। जैसे- कर्ता, यहाँ क ( प्रकति) से तच् प्रत्यय कहा गया है। क अङ्ग है।
(ii) प्रातिपदिकः धातु और प्रत्यय
(प्रत्ययान्तों) को छोड़कर सभी अर्थयुक्त शब्दों की प्रातिपदिक संज्ञा होती है।
प्रत्ययान्तों में भी कदन्त तद्धितान्त तथा समस्त पदों की प्रातिपदिक संज्ञा होती
है। प्रातिपदिक संज्ञक शब्द से सु आदि (सुप्) प्रत्यय लगते हैं।
(iii) पदः (क) सुबन्त तथा तिङन्त की पद
संज्ञा होती है; जैसे- राम + सु = रामः यह सुबन्त है और पठ्
+ अ + ति पठति यह तिङन्त पद है। सु से लेकर सुप् तक के सातों विभक्तियों के 21 प्रत्यय सुप् कहलाते हैं तथा ति से लेकर महिड़ तक धातु से लगने वाले 18 प्रत्यय तिङ् कहे जाते हैं। ये सुप् और तिड़ प्रत्याहार हैं। (ख) सित्
(जिसमें स की इत्संज्ञा हो) प्रत्यय परे होने पर पूर्व की पद संज्ञा होती है। (ग)
सर्वनाम स्थान को छोड़कर सु से लेकर कप् तक के प्रत्यय परे होने पर पूर्व की पद
संज्ञा होती है। पद संज्ञा हो जाने से राजत्वम् = (राजन् + त्व) में न लोप होता
है।
(iv) भ संज्ञाः (क) जिस प्रत्यय के
आरंभ में यकार या अच् (स्वर) होता है उसके परे होने पर पूर्व की भसंज्ञा होती है,
पद संज्ञा नहीं। (ख) तकारान्त और सकारान्त शशब्द की मत्वर्थ प्रत्यय
परे होने पर भ संज्ञा होती है। विभाषा: प्रतिषेध तथा विकल्प की विभाषा संज्ञा होती
है (नवेति विभाषा 1.1.44) विभाषा का अर्थ है किसी कार्य का
विकल्प से होना। ‘वा’ तथा ‘अन्यतरस्याम’ शब्दों का भी विभाषा शशब्द के अर्थ में
प्रयोग किया जाता है। वह विभाषा कई प्रकार की होती है, जैसे 1.
प्राप्तविभाषा किसी नियम से प्राप्त हुए कार्य का विकल्प 2. अप्राप्तविभाषा – किसी नियम से अप्राप्त कार्य का
विकल्प से विधान, 3. उभयत्र विभाषा (प्राप्ताप्राप्त विभाषा
कहीं प्राप्त तथा कहीं अप्राप्त विधि का विकल्प, 4. व्यवस्थित
विभाषा व्यवस्था से विकल्प अर्थात् कहीं कार्य होना कहीं न होना
(vi) उपधा: अन्तिम वर्ण से पहले वाले
वर्ण की उपधा संज्ञा होती है। (अलोन्त्यात् पूर्व उपधा 1.1.65 ) । जैसे- पठ् में पकार से अगले अकार की उपधा संज्ञा है। (vii) टि: किसी शशब्द का अन्तिम स्वर सहित आगे वाला अंश टि कहलाता है
(अचोन्त्यादि टि 1.1.4) जैसे पठ् में अठ्टि संज्ञक है।
(viii) संयोग: जब व्यजनों (हल) के बीच
में स्वर नहीं होते तो यह व्यजनों का संयोग कहलाता है (हलोनन्तराः संयोगः 1.1.7
) । जैसे अल्प में ल और प् का संयोग है।
(ix) सम्प्रसारण: य्व् र् ल् के स्थान
पर होने वाले इ, उ, ऋ तथा ल की
सम्प्रसारण संज्ञा होती है (इग्यणः सम्प्रसारणम् 1.1.45) 1
(x) गुणः अ. ए तथा ओ की गुण संज्ञा
होती है (अङ् गुणः 1.1.2 ) ।
(xi ) वृद्धिः आ, ऐ तथा औ की वृद्धि संज्ञा होती है (वद्धिरादैज् 1.1.1 ) । (xii) लोपः प्राप्त हुए प्रत्ययादि का अपने स्थान
पर दष्टिगोचर न होना लोप कहलाता है (अदर्शनं लोपः 1.1.60 ) ।
प्रत्यय के लोप की विविध स्थलों पर लुक् श्लु तथा लुप् संज्ञा होती है।
(प्रत्ययस्य लुक्श्लुलुपः 1.1.61) अर्थात् जिस संज्ञा
से प्रत्यय को लोप कहा जाता है उसकी वही
संज्ञा होती है।
(xiii) आदेश: किसी वर्ण आदि के स्थान
पर दूसरा वर्ण आदि होना आदेश कहलाता है, जैसे समास में
क्त्वा के स्थान पर ल्यप् हो जाता है।
(xiv) आगम: किसी वर्ण आदि का प्रकति या
प्रत्यय के साथ आ मिलना आगम कहलाता है। ये आगम प्रायः तीन प्रकार के होते हैं-टित,
कित् तथा मित् । जो टित् आगम होता है, वह जिसे
कहा जाता है उसके आदि में होता है, कित् अन्त में होता है ।
मित् अन्त्य के अच् से परे होता है।
टिप्पणीः आदेश तथा आगम प्राचीन संज्ञाएँ
हैं,
पाणिनि ने इनके लिए कोई सूत्र नहीं बनाया
8. श्शब्द-सिद्धि में सहायक कुछ अन्य
उपाय: (i) योग विभाग कभी-कभी कुछ प्रयोगों में किसी प्रत्यय
आदि का विधान यथोपलब्ध नियमों से नहीं होता है।
प्रस्तुत ग्रन्थ के विषय में
प्रस्तुत ग्रन्थ न तो कोई शोध का ग्रन्थ
है और न ही पाण्डित्य प्रदर्शन का इसका मुख्य उद्देश्य है छात्रों के लिए पाठ्य
सामग्री प्रस्तुत करना । सूत्रों की व्याख्याओं में पूर्व विद्वानों की व्याख्याओं
का आश्रय लिया गया है। जो भी व्याख्या विद्यार्थियों के लिए अधिक उपयोगी है उसे
यथावत् ग्रहण किया गया है ताकि विद्यार्थियों को अधिकाधिक लाभ हो सके। सूत्रों के
अन्त में जो संख्या 16536) दी गई है वह
अष्टाध्यायी के क्रम को सूचित करती है। जैसे २.३.४५ संख्या अष्टाध्यायी के दूसरे
अध्याय के तीसरे पाद के पैंतालीसवें सूत्र की ओर संकेत करती है।
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