अष्टाध्यायी - स्वरूप और महत्व
अष्टाध्यायी
पाणिनिप्रणीत व्याकरण शास्त्र के आठ
अध्यायों में विभक्त होने के कारण इसका विशेष अभिधान ‘अष्टाध्यायी शब्द से होता है। अष्टाध्यायी के समान अष्टक’ शब्द का प्रयोग भी पाणिनि व्याकरण के लिए उपलब्ध होता है। पाणिनीय व्याकरण
शास्त्र का एक नाम श्शब्दानुशासन’ भी है। किन्तु
श्शब्दानुशासन’ शब्द का अर्थ भी व्याकरण – सामान्य मानना ही युक्तियुक्त है। ‘महाभाष्य’
तथा चीनी चात्री इत्सिंङ्ग के यात्राविवरण में पाणिनि सूत्र को ‘वत्तिसूत्र’ कहा गया है। नागेश भट्ट का कहना है कि
ऋषिप्रणीत होने तथा अनेक अर्थों की सूचक होने के कारण योग- ‘अष्टाध्यायी’
का एक-एक सार्थक अंश तथा प्रत्येक
वार्त्तिक के भी अथवा समस्त अष्टाध्यायी
एवं वार्त्तिकों की समष्टि के भी ‘सूत्र’
कहलाने योग्य होने से पाणिनीय सूत्र वार्त्तिकारीय
वार्त्तिकापरपर्याय सूत्र में भिन्नता के प्रतिपादन के लिए ही भाष्यकार ने
पाणिनि-वचन को ‘वत्तिसूत्र’ कहा है।
यतः पाणिनिसूत्र पर वत्तियों का निर्माण हुआ है, वार्त्तिकात्मक
सूत्र पर नहीं, अतः विशेषण की सार्थकता स्पष्ट है ।
वार्तिकात्मक सूत्र भाष्यविशिष्ट हैं जब कि पाणिनीयसूत्र वत्तिविशिष्ट हैं- यहीं
तात्पर्य है। वत्तिसूत्र’ शशब्द की अन्यान्य व्याख्याएँ भी
मीमांसक जी ने प्रस्तुत की हैं, परन्तु उनका औचित्य इस
प्रसङ्ग में बहुत स्पष्ट नहीं प्रतीत होता है।
अष्टाध्यायी’
का स्वरूप
‘अष्टाध्यायी’ इस
नाम से ही स्पष्ट है कि पाणिनीय व्याकरण आठ अध्यायों में विभक्त है। प्रत्येक
अध्याय में चार-चार पाद हैं समस्त ‘अष्टाध्यायी’ की सूत्रसंख्या या पादगत सूत्रसंख्या में एकमत्य नहीं है, क्योंकि ‘काशिका’ आदि ग्रन्थों
में कुछ ऐसे भी सूत्र मान लिए गए हैं जो अन्य वैयाकरणों की दृष्टि में वार्त्तिक
या वार्त्तिकात्मक सूत्र हैं, पाणिनीय सूत्र नहीं प्रत्यक्ष
निदर्शन तो प्रथमाध्याय के प्रथम पाद की सूत्रसंख्या ही है जो अथ शशब्दानुशासनम्
तथा प्रत्याहार सूत्रों में अन्यतर या उभय के पाणिनिसूत्रत्व एवम् तदभाव के वैमत्य
के अनुसार परस्पर भिन्न हो जाती है। इससे अतिरिक्त भी कुछ ऐसे सूत्र हैं जिनके ‘वत्तिसूत्र’ या ‘भाष्यसूत्र’
होने में सन्देह है। ‘महाभाष्य सभी सूत्रों के
वार्त्तिकों) पर तो है ही नहीं, अतः इसके आधार पर
सूत्रसंख्या का निर्धारण भी कुछ कठिन कार्य है। काशिका के अनुसार अष्टाध्यायी के
सूत्रों की संख्या 3983 है और सिद्धान्तकौमुदी के अनुसार 3976 है।
अष्टाध्यायी का महत्व
सभी प्राच्य तथा पाश्चात्य विद्वान् ‘अष्टाध्यायी के महत्व को एक-स्वर से स्वीकार करते हैं। सभी ग्रन्थों में पाणिनीय व्याकरण को सर्वाधिक उत्कृष्ट माना गया है। अत एव इसके महत्व के विषय में अधिक कहने की अपेक्षा नहीं है। निम्नलिखित तर्क ही संक्षेप में पर्याप्त होगाः
किसी भी शास्त्र के विलोप का कारण है
जनप्रियता का अभाव आक्रमण आदि से ग्रन्थों का विनाश हो सकता है,
सम्प्रदाय का नहीं- इसका साक्ष्य इतिहास में उपलब्ध है। जनप्रियता
के अभाव के दो कारण होते हैं:- अनुपयोगिता तथा अनावश्यक क्लिष्टता । द्वितीय कारण
का तात्पर्य यह है कि यदि एक क्लिष्ट तथा अन्य सरल उपाय एक ही लक्ष्य पर पहुंचाने
में समर्थ होते हैं जनमानस सरल उपाय को ही पसन्द करता है। अतः पाणिनीय व्याकरण से
पूर्व तथा उत्तरकाल में विनिर्मित अनेकानेक व्याकरणशास्त्र का विनाश या विरल
प्रचार ही चिरकाल से विकासमान पाणिनीय व्याकरणशास्त्र के महत्व का प्रख्यापनकरता
है ।
दूसरी बात यह है कि शास्त्र का प्रयोजन
लोक-व्युत्पादन है। अतः लोक स्थिति का उल्लंघन कर कोई भी शास्त्र लोक में
प्रतिष्ठित नहीं हो सकता। आचार्य पाणिनि की दृष्टि में यह बात अवश्य थी। तभी तो
उन्होंने तदशिष्यं संज्ञाप्रमाणत्वात्, ‘लुब्योगाप्रत्याख्यानात्’,
‘योगप्रमाणे च तदभावेदर्शनं स्यात्
प्रघनप्रत्ययार्थवचनमर्थस्यान्यप्रमाणत्वात्’ तथा ‘कालोपसर्जने च तुल्यम्’ आदि सूत्र लिखे हैं। इस
दृष्टि से भी पाणिनीय शास्त्र की प्रतिष्ठा अक्षुण्ण बनी रही है।
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