आयुर्वेदानुसार भोजन व्यवस्था - Balanced diet according to ayurveda
आयुर्वेदानुसार भोजन व्यवस्था
एक व्यक्ति को प्रतिदिन स्वास्थ्यवर्धक भोजन चाहिए हमें यह जानना आवश्यक है
कि हमें प्रतिदिन कैसा भोजन खाना चाहिए जिससे कि हम निरोग रहे तथा लोग ग्रस्त होने
पर भी उस रोग के अनुसार नियमबद्ध हो। भोजन व्यवस्था जानने के लिए हमें व्यक्ति की
प्रकृति का ज्ञान होना आवश्यक है। पित कफ दोषों के गुण अलग-अलग होने के कारण
व्यक्ति की प्रकृति भिन्न भिन्न होती है। यही कारण है कि प्रत्येक व्यक्ति की
सोचने की प्रवृत्ति तथा किसी किया पर प्रतिक्रिया अलग-अलग होती है इसलिए उचित भोजन
लेने के लिए हमें व्यक्ति विशेष की प्रकृति का ज्ञान होना आवश्यक है। हमारे
त्रिदोष पित कफ पंचमहाभूतों से बने हैं इसी प्रकार हमारा भोजन भी पंचमहाभूतात्मक
है इसलिए व्यक्ति की प्रकृति के अनुसार भोजन व्यवस्था अति आवश्यक है तभी शरीर का
उचित विकास होगा शरीर में बल होगा तथा रोगग्रस्त होने पर शीघ्र रोग से मुक्त होगा।
आयुर्वेदानुसार भोजन
आयुर्वेदानुसार कुछ भोजन विशेषकर रोगों से बचाव कराने वाले तथा रोग होने पर
भी उनकी चिकित्सा की सफलता के लिए उपयोगी माने गए हैं। ऐसा भोजन उत्तम माना जाता
है जो संतुलित हो सुपाच्य ही, सम्पूर्ण देह को पोषण देने वाला हो तथा हमारे शरीर तथा मन को स्वस्थ रखने
वाला हो। रसों के अनुसार भोजन को आयुर्वेद में 6 वर्गों में बाँटा है यथा मधुरता प्रधान, अम्लता प्रधान
लगणता प्रधान, कटु र प्रधान, तिक्त रस प्रधान एवं कषाय रस प्रधान आदर्श रूप में छहाँ रस हमारे प्रत्येक
मुख्य भोजन में होने चाहिए। आयुर्वेद भोजन को उसके भौतिक लक्षणों के अनुसार भी
वर्गीकृत करता है। यथा रुक्ष एवं स्निग्ध गुरु एवं लघु कृष्ण एवं शीत। आयुर्वेदिक
चिकित्सको व्यवस्था पत्रक इस प्रकार से बनता है कि जिस दोष को सम करना है उसी
अनुसार भोजन दिया जाय।
समस्त मौसमी फल एवं सब्जियाँ, या ऐसे मसाले जो कटुवे एवं कषाय रस के हो दूध, लस्स का भोजन, चटनियों, साबुन दाल चोकर
युक्त आटे की रोटी, मूंग दाल में कुछ ऐसे भोज्य पदार्थों के उदाहरण है जिन्हें रोग दूर करने के
लिए पध्य के रूप में तथा शारीरिक वृद्धि के लिए दिया जा सकता है।
भोजन को इस प्रकार भी वर्गीकृत किया जाता है कि यह हृदय मन मस्तिष्क एवं
आत्मा पर क्या प्रभाव डालता है। जैसे सात्विक व तामसिक भोजन सात्विक भोजन वह है जो
शारीरिक रूप से स्वस्थ रखने के साथ-साथ मानसिक आध्यात्मिक रूप से भी स्वस्थ बनाए
जिसमें पवित्रता हो जैसे रोटी भात, गूंगदाल, दूध, मक्खन, घी, बादाम, लौकी, तुरई, परवल केला
खरबूजा आदि प्रायः सभी ऋतु फलमे सब सात्विक भोजन है तामसिक भोजन में वे खाद्य
पदार्थ आते है जो हैं मन तथा आत्मा को कलुषित करते है, उग्रता बढ़ाते हैं जैसे तीक्ष्ण मसालेदार आहार, मांसाहार मा आदि।
पट्रसों का सिद्धान्त
आयुर्वेद के अनुसार एस है संतुलित आहार में छहाँ रसों का मिश्रण आवश्यक है।
ये छ रस दोषों के ऊपर अपने विशेष प्रभाव रखते हैं। हमारा शरीर तीनों दोषों में से
किस दोष की प्रधानता वाला होगा वह इस बात पर निर्भर होता है कि हम अपने भोजन में
किस रस की प्रधानता है पचने के पश्चात भी रस नष्ट
नहीं होता है अपितु हमारे भौतिक एवं मानसिक दोषों के सही अनुपात को
प्रभावित करता है। ये पड़रा पंचमहाभूतों में दो-दो महाभूत को मिलाकर बनते हैं।
मधुर रस
मधुर रस शर्करा कार्बोहाइड्रेट्स (Carbohydrates) में पाया जाता है। यह कर देता को बढ़ाता है तथा यात एवं पित्त का शमन करता
है, यह शीत है दीर्थ
शरीर के ऊतकों के निर्माण तथा ऊर्जा उत्पादन में काम आता है। अधिक मात्रा होने पर
यह विष या विजातीय पदार्थ बनाता है या मेदस्विता करता है। वह पृथ्वी तथा जल महाभूत
से बना है तथा मन की प्रसन्नता एवं प्रीति करता है। अम्ल रस
अम्ल रस संधान किए हुए भोजनों में तथा खट्टे फलों में होता है। यह म एवं
पित्त की वृद्धि करता है तथा बात को घटाता है यह उष्ण प्रकृति (वीर्य) का रस है जो
कि भूख बढ़ाता है एवं पाचन में सहायता करता है। इसकी अधिक मात्रा होने पर यह
अम्लीयता में वृद्धि करता है। यह पृथ्वी तथा अग्नि महाभू बना है।
लवण रस
लवण रस नमक में तथा समुद्री घासों में होता है। यह कफ एवं पित्त बढ़ाता है
तथा बात का मन करता है। यह ऊष्ण चीर्य है जो कि उचित चयापचय कराता है शरीर को
शुद्ध करता है. मूल तथा पाचन बढ़ाता है। यह जल तथ महाभूत से बना है।
कटु रस
यह कटु रस गरम मसाली मिर्च आदि में होता है। कालीमिर्च, अदरख लाल मिर्च में कटु रस होता है यह पिता एवं
बात को बढ़ाता है तथा कफ को घटाता है। यह कृष्ण प्रकृति का रस है जो कि चयापचय को
ठीक करता है। मुख तथा पाचन को सुधारता है। अधिक मात्रा में लेने पर शरीर में बात
करता है तथ उत्तेजना एवं को बढ़ाता है वागू तथा अग्नि महाभूत से बना है।
तिक्त (कदुवा)
कुछ वनस्पतियों में युवा (तिला रस होता है। जैसे- करेला नीम, धक्कार (एलो वेरा) आदि यह दिल और कफ को कम करके
को बढ़ाता है, अय्यदों को
शक्ति देता है, भूख बढ़ाता है
तथा शरीर के विजातीय एवं विषय प्रभाव को दूर करता है। अधिक मात्रा में यह शक्ति को
कम करता है।
यह रस कफ एवं पित्त का शमन करता है तथा बात की वृद्धि करता है। काय रस शीत
होता है तथा शरीर के खादों को कम करता है। स्वेद के स्राव को भी कम करता है। अधिक
मात्रा में यह रूक्षता तथा प्यास लगाता है। वायु तथा पृथ्वी महाभूत से यह बना है।
हमें अधिक मात्रा में तिक्त कटु तथा कषाय रस वाला भोजन नहीं करना चाहिए तथा
अधिक मात्रा में मर एवं लवण रस का भोजन भी नहीं करना चाहिए इससे असंतुलन पैदा होता
है। अच्छा यही है कि अपनी प्रकृति के अनुरूप छो रसों के भोजन लें।
सानुसार कुछ भोज्य समूहों के उदाहरण
मधुर रस - दूध, मक्खन, क्रीम, चावल, घी मधु शर्करा सभी पके फल
अम्लरस- नीबू सतरा तथा नींबू कुल के अन्य फल आंवला, अमरूद, आम, अनार एवं अम्ल
रस युक्त कच्चे फल, दही छा
लवण - नमक, नमकीन, अचार धनियाँ, पुदीना आदि की नमक युक्त चटनियों।
कटु- मिर्च, कालीमिर्च, अदस्य सोठ, लौंग, राई मूली |
तिक्त - मेथी, करेला ग्वारपाठा (Aloe vera)
कायच्या - अमरूद, अनार का छिलका हल्दी, गूलर फल
पथ्य एवं अपथ्य पथ्य का अर्थ ऐसे आहार से है जो शरीर एवं मन पर विपरीत
प्रभाव डालते हैं। इसके विपरीत जो शरीर एवं मन पर विपरीत प्रभाव डालते है उनको
अपव्य कहते हैं। यदि एक व्यक्ति किसी रोग के लिए औषधि के साथ-साथ पथ्य का भी पालन
करता है तो यह पथ्य उसके रोग को दूर करने में करता है, जबकि अपथ्य सेवन से औषधि के कार्य करने की
शक्ति कम बल अधिक हो जाता है। कुछ लोग तो मात्र अपथ्य सेवन करने से ही है। जैसे
अपन्य निमित्त प्रमेह, मेदस्विता, उच्च रक्त चाप, अम्लपित्त आदि।
उचित विधि से पाक किया गया भोजन तथा आयुर्वेदिक विधि से गया भोजन दोनों ही
शरीर का विकास करने वाला होता है। पोषण की दृष्टि से शरीर पर इसके प्रभाव की
दृष्टि से मन तथा भावनाओं पर इसका प्रभाव भोजन का आत्मा पर प्रभाव को दृष्टि से
आयुर्वेदोक्त भोजन अपना विशेष महत्व रखता है। अन्य कारक जैसे भोजन का व्यक्तिगत
चयन मौसम भौगोलिक बाह्य वातावरण भोजन के विभिन्न बच्चों का आपस में विपरित प्रभाव
आदि को गहराई से देखा परखा जाता है। इसके अनुसार भोजन में पोषक तत्वों की मात्रा
संतुलित आहार भोजन से मिलने वाली उर्जा की मात्रा प्रोटीन, फैट, कार्बोहाइड्रेट्स विटामिन, खनिज तत्व आदि को ध्यान में रख कर ऐसी भोजन व्यवस्था व्यक्ति विशेष के
अनुरूप तैयार की जाती है कि खाये गये अन्न का ठीक से पाचन हो सके एवं शरीर की
समस्त धातुओं इन्दियों का पोषण हो एवं मन में प्रसन्नता उत्पन्न हो।
प्राचीन काल में जिस प्रकार लोग स्वास्थवर्धक आहार-विहार करते थे हजारों वर्ष पूर्व आयुर्वेद ने भोजन संबंधी ऐसे सिद्धांना दिये जो उस काल के व्यक्तियों को स्वस्थ रखते थे तथा आज भी ये सिद्धान्त उसी प्रकार सत्य सिद्ध है। स्वास्थ्यकर भोजन अपनाना स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य के संरक्षण के लिए भी आवश्यक है साथ ही रोगी व्यक्ति को भी शीघ्र चिकित्सा लाभ के लिए महत्वपूर्ण विरुद्ध आहार शरीर की धातुओं के विपरीत गुण वाले तथा दोषों के अनुकूल विरुद्ध कहलाते है तथा इस प्रकार के द्रव्यों को भोजन के रूप में लिया जाता है तो यह विरुद्ध आहार कहलाता है, विरुद्ध आहार में कुछ दव्य परस्पर गुण विरुद्ध कुछ द्रव्य संयोग विरुद्ध कुछ द्रव्य सरकार विरुद्ध कुछ द्रव्य देश विरुद्ध कुछ द्रव्य आत्म विरुद्ध कुछ द्रव्य मात्रा विरुद्ध और कुछ द्रव्य स्वभाव विरुद्ध होते है। विरुद्ध बव्य या आहार दोषों के अनुकूल गुण वाले होने से शरीर में दोषों को प्रकुपित कर देते हैं। परिणामस्वरूप शरीर में अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। अतः भोजन करते समय वैरोधिक आहार का ध्यान दिया जाना आवश्यक है।
उदाहरणार्थ, मकोय या मूली के साथ गुड़ का प्रयोग नहीं करना चाहिए. मछली विशेष रूप से
चिलचिन मछली के साथ दूध नहीं पीना चाहिए। मांस को मधु, तिल गुड मूली एवं अंकरित धान्य के साथ नहीं
खाना चाहिए। मूली, लहसुन, सरसों आदि खाने के बाद दूध नहीं पीना चाहिए मधु
एवं के साथ बर को नहीं खाना चाहिए। समान मात्रा में मृत एवं मधु को मिलाकर नहीं खाना
चाहिए। दूध के साथ अम्लीयफल करौदा नींबू आदि नहीं खाने चाहिए।
दही के साथ दूध खट्टे फल, तरबूज, गर्म पेय, मीट, मछली, आम पनीर नहीं खाना चाहिए। अंडों के साथ तरबूज, खरबूज, दही, मीट, मछली नहीं खाना चाहिए। नीट मछली के साथ असे गरिष्ठ भोजन के साथ गरिष्ठ भोजन करने पर पचने में भारी होगा। अष्ट आहार विधि विशेषयतन आयुर्वेद में भोजन तथा भोजन ग्रहण करने के विशेष नियम हैं, जिन्हें आवतन सेवा की गयी है, एक व्यक्ति के लिए आहार के आठ विशेष आवतन या सिद्धान्त है जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए खल्विमानवाहार दिपि विशेषतानि भवन्ति तथा प्रकृति करण संयोग राशि देश कालोपयाग संस्थोपयोष्टमानि चरक विमान
* प्रकृति
*करण
* संयोग
* राशि
*देश
* काल
*उपयोग संस्था
*उपयोक्ता
प्रकृति किसी भी दव्य की प्रकृति उसका अपना गुण है।
उदाहरणार्थ मूंग की दाल चने की दाल की तुलना में पचने में हल्की होगी
अर्थात मूंग की दाल सुपाच्य है चने की दाल की तुलना में इसी प्रकार प्राकृतिक रूप
में सुअर का मांस भारी होगा तथा हरिण का मांस लघु होगा। करण निर्माण करना
करण का अभिप्राय जिसमें द्रव्य के गुणों में बदलाव लाया जाता है। ये
प्रक्रियाएँ है - पकाना, मथना पूर्ण करना वातावरण के कारक जैसे नमी मौसम के अनुसार बदलाव थान, किस पात्र में रखा गया है, कितने समय तक संधान के लिए रखा गया है आदि।
उदाहरणार्थ चालू (अरबी) को कच्चा खाने से सा मुख से लेकर अंत तक तथा सारे शरीर में
असहिष्णुता कर देगी परन्तु इसी से यह स्वादिष्ट मधुर रस की हो जाती है एवं
असहिष्णुता उत्पन्न नहीं करेगी। वहीं जो कि कास श्वास एवं जोड़ों के दर्द को नहीं
बढ़ाएगा विष उचित शोधन एवं उचित प्रक्रियाओं से गुजरकर कार्यकारी औषधि के रूप में
उपयोग होता है।
संयोग (मिश्रण)
कुछ दव्य जो अकले प्रयोग करने पर दुर्गुण मैदा नहीं करते परन्तु मिला कर
लेने पर दुर्गुण या विषाक्त लक्षण पैदा करते हैं। उदाहरणार्थ अकेले प्रयोग करने पर
मधु एवं घृत स्वास्थ्य के लिए उत्तम होते हैं परन्तु बराबर मात्रा में एवं अधिक
मात्रा खा लेने पर पचने में भारी होकर अपने दुर्गुण पैदा कर देंगे दूध दही माऊली
शहद अकेले खाने पर स्वास्थ्यवर्धक होंगे परन्तु सम्मिलित होने पर दुर्गुण पैदा
करेंगे। राशि (मात्रा)
किसी वस्तु को कितनी मात्रा ली जा रही है या खाई जा रही है इसको राशि कहते
हैं। एक की भोजन में जाने वाली मात्रा (परिग्रह) साथ ही साथ भोजन में प्रयुक्त
सम्पूर्ण मात्रा (सर्वग्रह) को ध्यान में रखना चाहिए जब भी हम किसी व्यक्ति के
भोजन की मात्रा का निर्णय कर रहे हो। यह किसी व्यक्ति के भोजन की अपनी पाचन शक्ति
पर निर्भर करता है। भोजन की मात्रा पाचन को प्रभावित करती है पाचन शक्ति से अधिक
मात्रा में भोजन करने से अजीर्ण हो जाता है। एक लघु या हल्का माना जाने वाला भोजन
भी अधिक मात्रा में खा लेने पर उसका पाचन सम्भव नहीं हो पाया है।
देश
जिस स्थान पर जो वनस्पति स्वभावत होती है उसमें गुण होते. है। यदि उसी
वनस्पति को प्रकृति के विरुद्ध दूसरी पालवायु में उत्पन्न किया जाये जो वह हीन
गुणों वाली होगी। एक विशेष स्थान या जलवायु पर रहने वाले व्यक्तियों को उस देश
जलवायु पर उत्पन्न होने वाली वनस्पतिया अधिक कार्यकारी होती हैं। अलग-अलग स्थानों
पर उत्पन्न वही अन्न या वनस्पति अलग गुणों से युक्त होती हैं। काल समय
ऋतुकाल के अनुसार हमें अपना भोजन परिवर्तित कर देना चाहिए उदाहरण के लिए
शीत ऋतु में पाचन शक्ति प्रबल रहती है इसलिए पचने में मारी भी पच जाता है। इस समय
जठराग्नि तीव्र रहती है। ग्रीष्म तथा वर्षाऋ में जठराग्नि मंद रहती है अतएव सुपाच्य
हल्ला भोजन लेना चाहिए। उदाहरणार्थ ऋतु में फल, मृग बाल खिचली बलिया तक पूछ ही सुपाच्य भोजन है।
इसी प्रकार रोग हो जाने पर भोजन वृद्ध दोष के अनुसार चयन करना चाहिए
उदाहरणार्थ था ज्वर के प्रारंभिक दिनों तक नहीं लेना चाहिए जबकि के जीर्ण होने
अर्थात 7 दिन के पश्चात
मृत पान अच्छा रहता है। वह उदर की उष्णता से उत्पन्न रूक्षता को दूर करता है।
उपयोग संस्था (आहार के नियम)
आयुर्वेद में आहार के नियम बनाए गए हैं। सबसे महत्वपूर्ण नियम यह है कि
भोजन पूर्व खाए हुए भोजन के जीर्ण या पाचन होने पर किया जाये। भोजन जीर्ण होने के
मुख्य लक्षण इस प्रकार है लघुता भूख लगना, प्यास प्रसन्नता तथा प्राकृतिक मलमूत्र कियाओं का नियमित होना।
ताजा बना हुआ गुनगुना ऊष्ण भोजन जिसमे विरुद्धाहार न हो ऐसा भोजन करना
चाहिए भोजन उचित मात्रा में तथा पूर्व किए हुए भोजन के जीर्ण होने पर करना चाहिए
तथा साफ-सुथरे एवं उचित स्थान पर करना चाहिए। भोजन वाले समय बहुत जल्दी या बहुत
धीमी-धीमी गति से भोजन नहीं करना चाहिए भोजन करते समय पूरा ध्यान भोजन करने में ही
लगाना चाहिए उस समय हँसना बोलना वर्जित करना चाहिए।
भोजन करते समय इसके विपरीत चलना स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक है।
अनुकूल तथा प्रतिकूल भोजन द्वयों को एक साथ खाना समशन कहलाता है। यह स्वास्थ्य के
लिए हानिकारक है।
पूर्व में किए गए भोजन के जीर्ण या पाचन होने के पूर्व ही यदि पुन भोजन
किया जाता है तो यह है इससे आम की उत्पत्ति होती हैं। जिससे कई रोगों की उत्पत्ति
होती है।
अनियमित समय पर खाना किसी समय कम तथा कभी अधिक भोजन करना कहलाता है इसलिए नियमित रूप में सही मात्रा में भोजन करना चाहिए।
उपयोक्ता
उपयोक्ता का अर्थ यह व्यक्ति है जो भोजन कर रहा है। उसको यह ज्ञात होना
चाहिए कि कौन सा भोजन उसके लिए अनुकूल तथा कौन सा प्रतिकूल है। इसी के अनुसार उसे
भोज्य पदार्थों का चयन उनका संयोग उनका पाक एवं भोजन काल का निर्धारण करना चाहिए।
सही भोजन के नियम
आयुर्वेद में स्वस्थ तथा आहार के 10 नियम कहे गये हैं। इनको आहार विधि विधान कहा जाता है। यह विधियों स्वस्थ राधा रोगी व्यक्ति दोनों के लिए ही अच्छे हैं। यह एक अच्छी आदत है कि व्यक्ति हमेशा ताजा बना हुआ गर्म भोजन ही ले। भोजन सही मात्रा में ले तथा विरुद्धाहार न करें पूर्व किए गए भोजन के पूर्ण जीर्ण होने के बाद ही पुनः भोजन करे उचित स्थान पर बैठकर भोजन करना चाहिए, अतिशीघ्र तथा अति मन्द गति से भी भोजन नहीं करना चाहिए। पूर्ण मनोयोग से बिना बातचीत किए बिना हंसी मजाया किए भोजन करना चाहिए तथा भोजन करते समय बीच-बीच में अला मात्रा में पानी पीना
ऊष्ण भोजन
ताजा बनाया हुआ उष्ण भोजन स्वादिष्ट होता है। पाचन को बढ़ाता है। शीघ्र पचता है तथा श्लेष्मा को कम करता है। स्निग्ध स्निग्ध भोजन स्वादिष्ट होता है। पाचक रसों को उत्तेजित करता है। परन्तु पच जाता है। शरीर के लिए पोषक होता है, शक्ति का होता है मुख एवं सौंदर्य बढ़ाता है तथा इन्द्रियों को प्रसन्न रखता है।
उचित मात्रा में लिया हुआ भोजन दोषों की समता बनाए रखता है। भोजन आसानी से पचता है सही समय परतों में गति करता है तथा दीर्घजीवी बनाता है। अचार्य चरक ने आमाशय को 3 भाग में काल्पनिक विभाजन करके भोजन करने को कहा है। एक भाग को ठोस आहार से भरना है। दूसरे भाग को तरल से तथा तीसरे भाग को खाली रखना है। व्यक्ति को इससे पता चल सकता है कि उसने भोजन की मात्रा उचित ग्रहण की है या नहीं।
आहार ग्रहण काल
यह सदैव उत्तम है कि व्यक्ति को पूर्व किए हुए भोजन के जीर्ण होने पर ही भोजन करना चाहिए। भोजन के जीर्ण होने के लक्षण है मूख का पुनः लगना, प्यास लघुता उद्गार का आना, वायु मल मूत्र का उचित निस्सारण होना, हृदय तथा नाड़ियों में शुद्धता का अनुभव होना। भोजन करने की यह अच्छी आदत समय से भोजन का पाचन करती है। धातुओं को दूषित नहीं करती तथा दीर्घजीवी बनाती है।
अवैरोधिक आहार
जो आहार हम कर रहे हैं वह विरुद्ध नहीं होना चाहिए।
इष्ट देश सर्व उपकरण
भोजन उचित साफ सुथरे स्थान पर तथा सभी उपकरण साथ रहने चाहिए। इससे मानसिक तथा भौतिक व्यक्तान दूर होते हैं। उदाहरणार्थ दुगंधित स्थान पर भोजन करना तथा अरावनी जगह पर भोजन करने से मानसिक धान पैदा होकर भूख तथा पाचन पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
शीघ्रता से भोजन न करें -
भोजन तीव्र गति से नहीं करना चाहिए अन्न को धीरे-धीरे चबाकर उसी में मन लगाते हुए भोजन करना चाहिए। शीघ्र भोजन करने से एक तो भोजन के अच्छे स्वाद का ग्रहण नहीं हो पाता भोजन लार से प्रथम पाचन से वंचित रहता है तथा भोजन का दाँतों से पिसना नहीं हो पाता।
अति विलम्बन से भोजन न करे
बहुत धीरे-धीरे भोजन करने पर भी वह क्षुधा को शान्त नहीं कर पाता इससे भोजन शीत हो जाता है तथा अति मात्रा में भी खाया जा सकता है।
सन्मना आहार -
यदि कोई व्यक्ति वार्तालाप करते हुए हंसते हुए भोजन करता है तो इससे भोजनास नली में करने का भय होता है तथा स्वाद का भी पता कम लगता है। भोजन लार से नहीं मिल पाता है। अत खाये गये भोजन का उचित रूप में पाचन नहीं हो पाता है। अत पूर्ण मनोयोग से प्रसन्न रहते हुए आहार करना चाहिए।
शक्ति के अनुरूप आहार - अपनी आत्मा के द्वारा यह विचार कर कि यह आहार द्रव्य मेरे लिए हितकर है तथा यह अहितकर आहार की यह मात्रा उपयुक्त है तथा यह हीन या अत्यधिक है ऐसा विचार करके ही आहार करना चाहिए।
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