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आयुर्वेद का संक्षिप्त इतिहास - Brief History of Ayurveda


आयुर्वेद इतिहास एंव अवतरण - Brief History of Ayurveda


सभी प्राणी स्वस्थ एवं दीघ्र जीवन की कामना करते हैं। स्वस्थ रहकर ही दीर्घ जीवन सम्भव है. तथापि यदि प्राणिमात्र रोगग्रस्त हो जाता है तो अनेक प्रकार के चिकित्सा उपायों के द्वारा रोगमुक्त अर्थात् पुनः स्वस्थ होने के प्रयत्न किये है। आयुर्वेद चिकित्सा विज्ञान के द्वारा रोग मुक्ति सम्भव है वही आयुर्वेद का प्रयोजन भी है प्रयोजन चाय स्वस्थस्य स्वास्थ्य रक्षण आतुरस्य विकार प्रशमन चरक संहिता उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर यह अनुमान है कि सृष्टि के प्रारम्भ के साथ ही स्वस्थ स्वास्थ्य का संरक्षण तथा आतुर (रोग घरोगी मुक्ति के सुझाने वाले चिकित्साशास्त्र आयुर्वेद की भी उत्पत्ति हुई। यह अनुमान है कि सृष्टि के रचियता ब्रह्मा ने ही आयुर्वेद की भी रचना की तथा उन्होंने दक्षप्रजापति को इसका उपदेश दिया यक्ष प्रजापति ने अश्विनी कुमारी को आयुर्वेद की शिक्षा की तथा अश्विनी कुमारों से इन्द्र ने आयुर्वेद के ज्ञान को प्राप्त किया, बझा से लेकर इन्द्र तक की शिक्षण परम्परा देव उपदेश कही जाती है।


इन्द्र से आयुर्वेद चिकित्सा का ज्ञान महर्षि भारद्वाज ने त्रिसूत्र रूप में प्राप्त किया। मे सूत्र रोग उत्पन्न होने के विभिन्न निदान (Aetiological factors) अर्थात रोगों के रूप (clinical features) एवं तृतीय सूत्र औषधज्ञान अर्थात् विभिन्न व्याधियों के विभिन्न चिकित्सा उपाय महर्षि भारद्वाज ने आत्रेय आदि ऋषियों को आयुर्वेद का उपदेश दिया पुनर्वसु आवेय ने अपने प्रमुख छ. शिष्यो अग्निवेश, भेल, जतुकर्ण, पाराशर, हारीत और धारपाणि को आयुर्वेद की शिक्षा दी। यह आयुर्वेद का लौकिक उपदेश कम है तथा पुनर्वसु आत्रेय तक मौखिक शिक्षण की परम्परा थी।


आय के शिष्यों ने आयुर्वेद ज्ञान को लिपिबद्ध किया तथा अपने अपने नाम से संहिताओं (चिकित्सा ग्रन्थों का निर्माण किया। अग्निवेश ने अपने नाम से अग्निवेश संहिता लिखी तथा उक्त चिकित्सा चरक संहिता के के नाम से ही प्रचलित एवं प्रसिद्ध है।


वेदों में आयुर्वेद


संसार के प्राचीनतम ग्रन्थों में मोद, सामवेद, अथर्ववेद एवं सामवेद है इन चारों वेदों में यत्र-तत्र आयुर्वेद चिकित्सा का भी वर्णन है। अपर्वेद में आयुर्वेद मे आयुर्वेद का विस्तृत वर्णन मिलता है तथा आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपद गाना गया है।


आयुर्वेद के प्रमुख ग्रन्थः


आयर्वेद में उपलब्ध चिकित्सा ग्रन्थों को बृहत्रयी एवं लघुत्रयी कहा गया है। चरकसहिता सुश्रुतसंहिता तथा अष्टांग हृदय की गणना बृहत्या में की जाती हैं


सुश्रुत संहिता - महर्षि सुश्रुत मे धन्वन्तरि के उपदेशों को संग्रहीत कर संहिता का निर्माण किया यह शल्य चिकित्सा प्रधान ग्रन्थ है।

सुश्रुत संहिता के स्थान एवं अध्याय -


1. सूत्रस्थान - 46


2 निदान स्थान 16


3 शारीर स्थान 10


4.चिकित्सा स्थान- 40


5 कल्प स्थान - 08


यन्त्र-शस्त्रों का वर्णन वास्त्र कर्म विधि अश्मरी अर्श मूत्रवृद्धि और जलोदर में शस्त्र प्रयोग का विधान व्रण के आठ उपक्रम और व्रणबन्धों का विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है। इस ग्रंथ में क्षार अग्नि, जलीका आदि का वर्णन है। रक्त निर्हरण के लिये जिला और प्रछान्न का विधान है।


2. चरक संहिता


इस सहिता का मूल नाम अग्निवेशतन्त्र था जिसका निर्माण अग्निवेश ने किया था। सबसे पहले इन्होंने ही आय के उपदेशों का संकलन किया वह संकलन सूत्ररूप में संक्षिप्त था, जिसका प्रतिसरकार चरक ने किया और अनेक नवीन विषयों का समावेश कर अग्निदेशतंत्र का उपहण किया पुनः बल ने चरक सहिता को प्रतिपूरति कर वर्तमान समय में उपलब्ध चरक संहिता को स्वरूप प्रदान किया।


चरक संहिता के स्थान


सूत्र स्थान 30


विमान स्थान 8


शारीर स्थान


इन्द्रिय स्थान 12


चिकित्सा स्थान 30


कल्प स्थान 12


सिद्धि स्थान 12


अष्टांग हृदय -


ग्रन्थकार वाग्मट ने इस ग्रन्थ को आयुर्वेद वाग्मय रूपी समुद्र का हृदय कहा गया हैं



यह संहिता आयुर्वेदीय चिकित्सा के व्यवहारिक रूप को प्रकट करती है। इसमें आयुर्वेद के दोनों ही प्रमुख सम्प्रदाय काय चिकित्सा तथा शल्य चिकित्सा के उपयोगी विषयों का वर्णन किया गया है।


लघुत्रयी आयुर्वेदीय विषयों को सामान्य शिष्यजनों को ग्राम बनाने के लिए जिन ग्रन्थों का निर्माण किया गया उन्हे लघुत्रयी नाम से जाना जाता है।


लघुत्री के प्रमुख ग्रंथ है...


शाई, घर संहिता


3 भाव प्रकाश


माधवनिदान -


इस ग्रन्थ का वास्तविक नाम रोग विनिश्चय है और इसके रचयिता माधवक है। यह ग्रन्थ सरल और सुबोध शैली में लिखा गया था ताकि सामान्य चिकित्सक अल्प समय तथा अल्प श्रम करके सुख पूर्वक रोगों का मान कर सके। इस ग्रन्थ में पोगविनिश्चय (Diagnosis) को विशेष महत्व देते हुए व्याधि के निदान पूर्वरूप रूप आदि का वर्णन है अतएव यह युक्ति प्रचलित हैं



2. शार्गधर


शार्गधर नाम के अनेक आचार्य हुये हैं। इनमें दामोदर पुत्र शाईघर जो वैद्य थे उन्होंने सोल (12वीं शताब्दी) की शैली पर शार्मघर संहिता की रचना की। बत्तीस अध्याय निहित यह सहिता तीन खण्डों में विभक्त है व मध्य एवं उत्तर इस संहिता में रसशास्त्रीय औषधियों और औषध कल्पनायें तथा नाडी परीक्षा रोग विज्ञान के उपाय के रूप में समाविष्ट किया गया है, और नानाविध चिकित्सा का व्यवहारिक रूप से वर्णन किया गया है।



भाव प्रकाश (सोलहवीं शताब्दी)


इस अन्य के रचयिता भामिल हैं। इन्होंने प्राचीन संहिताओं के मार्ग पर चलते हुए नवीन विचारों तथा नवीन द्रव्यों का उल्लेख किया है। लघुत्र में यह अन्तिम और महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में औषधीय पादपों का विस्तृत वर्णन है।


शती में एक और चिकित्सा सुन्ध योग रत्नाकर की संरचना की गयी इसमें अष्टविध रोगी परीक्षा गाड़ी परीक्षा, मूत्र परीक्षा गल परीक्षा, जिल्वा परीक्षा शब्द परीक्षा दृगपरीक्षा एवं आकृति इस प्रकार रोगी परीक्षा को अधिक प्रयोगिक बनाने का प्रयन्त किया गया।


देशान्तारों से आयुर्वेद का सम्बन्ध


सुश्रुत संहिता के टीकाकार उल्हण ने सुश्रुत के सहपाठी के रूप में वाल्हीक देश के श्रेष्ठ चिकित्सक के रूप में काकायन का नाम उल्लेख किया है। इन उल्लेखों से यह प्रतीत होता है कि अन्य देशवासी होते हुए भी भारतीय चिकित्सकों के सहचर्य थे। चरक संहिता में काकाथन को वाल्हीक कि कहा गया है। प्राचीन बालीक देश में चल तुर्किस्तान, ईरान आदि सम्मिलित थे उसी का नाग अरब था। उसी देश में प्रचलित यूनानी चिकित्सा पद्धति के सम्म यही आचार्य थे याचीक देश के मुख्य चिकित्सक के रूप में प्रसिद्धनाचार्य दिवोदास के शिष्य रूप में निर्देश मिलता है। जिससे यह तथ्य बलवती होता है कि केवल भारतवर्ष में ही नहीं अपितु अन्य देशों में भी एक आदर्श चिकित्सा के रूप में आयुर्वेदीय चिकित्सा प्रचलित थी और अन्य देश के जिज्ञासु शिष्य इस विद्या के के लिए यहाँ आते थे।


चीन में प्रचलित चिकित्सा पद्धति के प्रथम आचार्य महर्षि पैगि थे और यूरोप देश की चिकित्सा पद्धति के प्रथम आचार्य थे हिरण्याक्ष (सुवर्णाभिनेत्री या पीली आखों वाला)। इनका भारतीय चिकित्सा के साथ सम्पर्क था।


दक्षिण भारत में आयुर्वेद चिकित्सा के प्रथम आचार्य महर्षि अगस्त थे। लंका के अधिपति पुलस्त्य एक उच्च कोटि के चिकित्सा शास्त्री थे इनका कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। उनके पौत्र रावण नाही विज्ञान के प्रकाण्ड पण्डित थे और उनके नाही दर्शन आदि ग्रन्थ उपलब्ध है। महर्षि बादरायण भी आयुर्वेद ऋऋषि थे जो वेदव्यास के नाम से प्रसिद्ध है। उनके गरुडपुराण अग्निपुराण आदि ग्रन्थों में यत्र-तंत्र प्रचुर रूप में आयुर्वेदीय विषयों के वर्णन है काश्यप संहिता बाल चिकित्सा से सम्बन्धित उत्कृष्ट ग्रन्थ है काश्यप संहिता के अंशताका रूप में नेपाल राजगुरू प० हेमराजशर्मा को प्राप्त हुए थे तथा उन्होंने इसका प्रकाशन कराया था द्वारा लिखित विस्तृत उपोद्घात को वाराणसी से प्रकाशन हुआ है।


आयुर्वेद की सामाजिक स्थिति


पदम राज्य स्थापित होने के पूर्व तक हिन्दू राज्य में आयुर्वेद का पालन पोषण समुचित रूप से होता था जन साधारण आयुर्वेद की चिकित्सा कराता था। मध्यकाल में मुस्लिम शासन कायम होने पर शासन की ओर से यूनानी


चिकित्सा पद्धति को प्रश्रय मिला और आयुर्वेद चिकित्सा के विकास की गति धीमी हो गयी। अंग्रेजी राज्य स्थापित होने पर राज्याश्रय एलापैथी को मिला । देशी राजाओं के संरक्षण में संस्कृत कालेजों में आयुर्वेद की भी शिक्षा और यत्रतत्र औषधालय भी चलते रहे। सन् 1833 में बिलियन वैटिक ने चिकित्सा विज्ञान के शिक्षण हेतु एक समिति गठन की और शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से होने और मेडिकल कालेज स्थापित करने की सिफारिश की तथा संस्कृत विद्यालय, आयुर्वेद एवं यूनानी विद्यालय बन्द कर दिये गये।


सन् 1920 ई० में आल इण्डिया कांग्रेस ने एक प्रस्ताव पास किया कि भारत में प्रचलित देशी चिकित्सा पद्धति को विकसित किया जाये तब सरकार ने देशी चिकित्सा पद्धति की जांच की और उसके उत्थान के लिए कतिपय कमेटियाँ गावित आयुर्वेद की शिक्षा तथा व्यवसाय की उचित व्यवस्था के लिए राज्य सरकार ने भारतीय चिकित्सा परिषदों की स्थापना की भारतीय चिकित्सा परिषद् की स्थापना फरवरी 1926 में हुई इस सम्बन्ध में विधिवत रूप से सन् 1939 में इडियन मेडिसिन एक्ट पारित हुआ


सन् 1900 में प्रथम भारतीय चिकित्सा केन्द्रीय परिषद का गठन किया गया।