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घरेलू जड़ी-बूटिया तथा उनका औषधीय उपयोग - Homemade herbs and their medicinal uses


 घरेलू जड़ी-बूटिया तथा उनका औषधीय उपयोग


आयुर्वेदिक मसाले


आयुर्वेदिक औषधियों इस तथ्य पर आधारित है कि मानव शरीर में भौतिक तथा आत्मिक साम्यता आवश्यक है। इस साम्यता को विभिन्न विधियों से सम अवस्था में रख सकते है इसको समयावश्यक भी है। दोषों को समावस्था में रखने के लिए भोजन के साथ विभिन्न मसालों का प्रयोग करना चाहिए। भोजन में प्रयोग होने वाले मसाले कृष्ण या शीत वीर्य होते है जो कि पाचन तंत्र को सुचारू रखते है। एक मसाले में छ रसों में से कोई एक या अधिक रस हो सकते है। ये है मधुरवण, कटु, तिक्त, कषाय प्रायकर मसाले कटु रस सुगंधित तेलों से युक्त हुए होते है जो कि विभिन्न मसालों के वृक्षों के फल, मूल, बीज, बना, छाल आदि होते हैं। इनका प्रयोग भोजन को सुगंधित व सुस्वाद बनाने के लिए होता है। आयुर्वेद में मसालों का बहुत महत्व है। मसाले अपने औषधीय गुणों स्वास्थ्यकर्षक गुणों के लिए अति महत्वपूर्ण है। अधोलिखित कुछ मसालो को नाम तथा उनके प्रयोग गणित है।


• कालीमिर्च- यह जाणवीर्य कटु एस प्रधान औषधि है। यह पाचन शक्ति बढ़ाती है तथा पित्त की वृद्धि करती है। बात को चलायमान तथा कफ का छेदन (शरीर से निकालना करती है।


• इलायची यह मधुर एवं स्वाद की है। यह शरीर में उष्णता प्रदान करती है तथा पाचन शक्ति को बढ़ती है। यह हृदय के लिए उत्तम है तथा श्वास की दुर्गन्ध को दूर करती है। अधिक मात्रा में लेने पर यह पित्त को बढ़ाती है। यह बात एवं कफ को शान्त करती है।


• लॉंग लवंग या लोग कृष्ण वीर्य औषधि है तथा पाचन में वृद्धि करती है। विभिन्न भोजन द्रव्यों में इसे स्वाद बढ़ाने एवं सुगंध बढ़ाने के लिए प्रयोग करते हैं। यह पित्त को बढ़ाता है तथा वात, कफ को कम करता है।


• धनियाँ कटु एवं कषाय रस प्रधान है। यह शीतलता प्रदान करता है। यह मधुर तैलीय शुष्क एवं लघु है यह मूत्र कष्ट से मूत्र उतरने के लक्षण को कम करता है। भोजन के आभूषण की शक्ति को बढ़ाता है एवं कफ का वृद्धि करता है तथा पित्त को शान्त करता है।


• जीरा हा कटुवंय है यह उष्णता प्रदान करने वाली औषधि है तथा लघु तैलीय है। यह अतिसार को दूर करता है एवं पाचन शक्ति बढ़ाता है। यह पिता को बढ़ाता है तथा एवं का करता है।


• मेवी यह लिका एवं का रस वाली है। यह रचा तथा ऊष्ण प्रधान मसालों में आती है जो कि दर तथा बात रोगों को दूर करती है। अधिक मात्रा में लेने से यह पित्त को बढ़ाती है तथा कफ को घटाती है। जोड़ों के दर्द तथा मधुमेह में लाभदायक है।


• लहसुन यह कटु र प्रधान तीक्ष्ण स्वाद की औषधि है। यह ऊष्ण वीर्य प्रधान है। यह तैलीय तथा गुरू होता है। रोग की अच्छी है। खाँसी को दूर करती है। यह पित्त को बढ़ाती है तथा बात कफ शामक है। रक्तगत कोलेस्टेरॉल को घटाता है।


• अदरक कटु रस प्रधान एवं उष्ण वीर्य युक्त औषधि व्य है। यह र शुष्क तथा रा है भूख एवं पाचन शक्ति को बढ़ाता है। अधिक मात्रा में खाने से पित्त वर्मक है। यह बात एवं कफ का शमन करता है। बच्चों अदरक को सेवा नमक के साथ भोजन के प्रारम्भ में लेना चाहिए।


• सरसों के बीज तीक्ष्ण उष्ण द्रव्य है यह तैलीय लघु एवं चरपरे स्वाद का है। यह मांसपेशियों की पीड़ा को दूर करता है। इसके बीज पित्तवर्धक है तथा एवं कफ को कम करते हैं।


• कैंसर यह कषाय रस शीतवीर्य औषधि है। इससे अर्थ में भी लाभ होता है। यह बात कफ गर्थक तथा पित्त नाशक है एवं बलकारक है।


• लवण यह कृष्ण लवण भारी एवं रुक्ष है तथा रुचिकर एवं पाचन शक्ति है। यह अधिक मात्रा में खाने पर उच्च रक्तचाप करता है तथा पानी का शरीर से उत्सर्जन कम कर देता है। यह बाहर तथा कफपित्त है। • हल्दी यह तिक्त, कटू का रस वाला है। यह प्रथा अ की अच्छी औषधि है। बहुत मधुमेहाचा रोग में लाभकारी है। यह पाचन शक्ति को बढ़ाती है। अधिक खाने पर बाल पित्तवर्धक तथा कफ हर ताजे हरे पत्तेदार मसाले कुछ वनस्पतियों भोजन को सुगंधित करने, सुरुचि पैदा करने उनको स्वास्थ्यवर्धक शक्ति को बढ़ाने तथा उनके औषधीय गुण को बढ़ाने का कार्य करती है। उदाहरणार्थ- भनियों के हरे पतं, पोदीना पत्र, मूलीपत्र हरा प्याज आदि ये गर्मी से कम प्रभाव व कम सुगंध वाले हो जाते है इसलिए इनको का ही ऊपर से भोजन के पकने के बाद डाला जाता है।



घरेलू अन्य औषधीय द्रव्य


ओसिमग सेन्चटम


तुलसी– वानस्पतिक नाम- (Ocimum Sanctum)


प्रयोज्य अंग पत्तियों व बीज


उत्पत्ति स्थान सम्पूर्ण भारत


हिमालय में हजार फीट ऊँचाई तक होती है।


उपयोग


1 उष्ण होने के कारण बातश्लैष्मिक विकारों जैसे खांसी पर आदि में प्रयोग किया जाता है।


2. तुलसी के तेल मै जन्तुध्न, एंटी कैंसर ज्वरन गुण पाये जाते हैं।


के यह हृदय के लिए गुणकारी है तथा रक्तशोधक होने के कारण त्वचा से किया जाता है।


4. नेत्र विकारों में भी तुलसी का प्रयोग ब्रह्म व आभ्यान्तर दोनों प्रकार से किया जाता है।


5. इसके बीज मूत्रल व शुक्ल होने से इसका प्रयोग मूत्रकृच्छ व शुक्रमेह में किया जाता है।


6. प्राचीन काल से ही इसका प्रयोग विभिन्न दियों के निराकरण के लिए किया जाता है।



पुदीना


वानस्पतिक नाम- मेवा स्पाइक (Metha spicata)


प्रयोज्य अंग


पंचाग, तेल


उत्पत्ति स्थान संपूर्ण भारत वर्ष



उपयोग


1. पुदीना, रेचन दीपन होने के कारण अरुचि वमन आदि में प्रयोग किया जाता


2. यह वातानुलीमक वेदनास्थापन, दुर्गन्धनाशक जन्तु वणरोपक है अतः दर्द स्थानों में लेप चोट वाले स्थानों में लगाने व मुखदुर्गन्ध नाशन के लिए इसके स्वर से कुल्ला करते है।


3 तीवण उष्ण होने से कफ वातजन्य विकारों में प्रयुक्त होता है।


4. इसकी पत्तियों का क्या बुखार पेट दर्द कष्ट व रजोरी में उपयोगी


5 मुँह के छाले मसूड़ों की सूजन व दाँत दर्द में भी यह लाभकर है।



कुमारी


वानस्पतिक नाम एलोवीरा (Aloe vera)


प्रयोज्य जग


उत्पत्ति स्थान भारत वर्ष में 5000 फीट की ऊँचाई तक पाया जाता है।


उपयोग


1. यह शोषहर और और वेदनात्यापन है। गलगण्ड में इसके मूल व पत्र का लेप करते हैं। इससे सिद्ध तेल का अभ्य और बातव्यामि में करते हैं।


2. यह मस्तिष्कशामक है अत मूर्च्छा समय अनिद्रा में प्रयुक्त होता है। ॐ यह रक्त भार शामक होने से उच्चरक्तचाप में उपयोगी है।


4. बाजीकरण तथा गर्भाशयशोपहर होने से शुकदल्य प्रायोनिशूल में दिया जाता


5. यह मूत्रल व उलाम रसायन है.



शतावरी


वानस्पतिक नाम एसपेरेगस रेसमोसस (Asparagus racemosus)


उत्पत्ति स्थान - उत्तर भारत में बहुतायत से तथा हिमालय में 4000 फीट तक की ऊँचाई पर पाया जाता है।


प्रयोज्य अंग - कंद


उपयोग


1. यह वातपिता शामक है। इससे सिद्ध तेलों का प्रयोग शिरोरोग, वात व्याधि दौर्बल्य में करते है।



2. यह शुकल गर्भपोषक व स्तन्यपान इसलिए शुदा गर्भय गर्भाव रक्तप्रदर व स्तन्यक्षय में प्रयोग में लाया जाता है।


3. यह अम्लपित्त, शूल, ग्रहणी अर्शद नाशक है। 4. छोटी माता होने पर इसके पत्तों का लेप दशक का काम करता है।


5. सभी आयु की स्त्रियों के लिए बल्य व रसायन है।



भृंगराज


वानस्पतिक नाम एक्लिप्टा एल्बा (Eclipta alba)


प्रयोज्य अंग पंचाग


उत्पत्ति स्थान सम्पूर्ण भारत वर्ष


उपयोग


1. मुंगराज बालों के लिए और यकृत शोध में मुख्यरूप से प्रयोग की जाने वाली


2. यह किडनी और लीवर की कारगर औषधि है। बालों का असमय सफेद होना,


भृंगराज तेल का नियमित उपयोग लाभदायक होता है। अनिदा में भी तेल लाभप्रद है।


3. यह मूल है अतः मूत्र दाह में लाभ करता है। 4. स्वेदजनन तथा विकारों में लाभकर है।


5. गर्भाशय रक्षा तथा प्रसूतिजन्य गर्भशय शूल की यह उत्तम औषधि है।




छोटी इलायची


वानस्पतिक नाम - इलेटेरिया कार्डामोगम (Elettaria Cardamomum)


प्रयोज्य अंग बीज


उत्पत्ति स्थान दक्षिण भारत


उपयोग


1. इलायची मुखरोग, वमन अरुचि, अग्निमांद्य में प्रयुक्त होती है। 2. यह श्वास व कास में भी लाभदायक है।


3. यह वातानुलोम होने से उदर शूल तथा पेट के फूलने में भी प्रयोग की जाती है।


4. इसके बीजों का तेल पाचक तथा अम्लपित्त में लाभकर है। 6. यह नेत्रदाह गलशोध वास तथा दाँत व मसूढ़ों के रोगों में लाभकर है।


पपीता


वानस्पतिक नाम केरिका पपाया (Carica Papaya)


प्रयोज्य अंग फल पत्र दूध बीज


सम्पूर्ण भारतवर्ष



उत्पतिस्थान सम्पूर्ण भारतवर्ष


उपयोग


1. इसमें पाये जाने वाले कायमोपापेन और पापेन (Chymopapain & papain)


पाचक है इसलिए यह पाचन सम्बन्धी रोगों व अन्य कृमि में लाभकर है। 2. इसके मूल के का प्रयोग मूत्राश्मरी तथा मूत्रकृच्छ में करते हैं।


2. इसके दूध का प्रयोग सोरायसिस तथा रिंगवर्ग में किया जाता है।


4. इसकी दूध बीजों का प्रयोग रजोरोध कष्टार्तव में किया जाता है।




दालचीनी


वानस्पतिक नाम – सिन्नामोसम जिलनिकम (Cinnamomum Zeylanicum)


प्रयोज्य अंग छाल


उत्पत्ति स्थान दक्षिण पश्चिम भारत में समुद्र किनारे एवं श्रीलंका


उपयोग


1. यह मुखशोधन, मुखदुर्गन्ध नाशन है।


2. यह भारतीय भोजन में गर्म मसालों के रूप में प्रयोग किया जाता है। यह उत्तम दीपन दव्य है।


3. ग्रह में उपयोगी है तथा कोलेस्ट्राल व ट्राइग्लिसराईड को कम करने के काम आता है।


4 यह वातानुलोमक एवं ग्राही है अत: उदर में वायु संचित होने (आफरा) तथा अतिसार में भी उपयोगी है। यह अरुचि, श्वास कास में उपयोगी है।


5 मूत्रकृच्छ रजोरोध में इसका चूर्ण देने पर लाभ होता है।



धतूरा


वानस्पतिक नाम धतूरा मेटल (Datura Metal)


प्रयोज्य अंग- बीज, पुष्प व पत्र


उत्पत्ति स्थान उत्तर पश्चिम हिमालय


उपयोग


1. वेदना स्थापन होने से इसके पत्रों का लेप दर्द वाले स्थानों पर किया जाता है।


2. अम्लपित परिणामशूल और पित्ताश्मरी में इसका प्रयोग जामकर है।


3. यह श्वास रोग की औषधि है।


4. इसके पत्र पुष्परी और बीज वेदना स्थापक, मादक गुण वाले होते है।



अदरक (सौंठ)


वानस्पतिक नाम- जिजीवर ओफिसल


प्रयोज्य अंग - कंद


उत्पत्ति स्थान सम्पूर्ण भारतवर्ष


उपयोग


1. अदरख की चाय (पाच) सदी जुकाम व कफ की उत्तम औषधि है।


2 खून को पतला करने के गुण के कारण तथा कोलेस्ट्रॉल को कम करने को कारण यह हृदय रोगों में प्रयोग किया जाता है।


3. समुद्री यात्रा, हवाई यात्रा तथान्य मन में यह कारगर औषध


4. अरूचि उदरशूल अतिसारा काम में भी यह जानकर है यह दीपन पाचन कर्म करता है।


5. यह आमाचक है अत शरीर में उत्पन्न आम को नष्ट करता है।




गुड़मार


वानस्पतिक नाम जिम्मा सिल्वेस्ट्रा (Gymnema sylvestre)


प्रयोज्य अंग - पंचांग


उत्पत्ति स्थान मध्य व दक्षिण भारत


उपयोग


1. यह रक्त में शर्करा की उपस्थिति को नियंत्रित करता है अतः मधुमेह में प्रयोग किया जाता है।


2. इसको जड़ का चूर्ण सर्पदश के बण पर लगाने के काम आता है। 3 कूता शोध, अरुचि विबन्ध व पीलिया की कारगर औषधि है।


4 प्रतिश्याय कासव श्वास में इसके बीजों का चूर्ण देते है।


5. मूल का सर्पविष में पिलाते हैं।




अखरोट


वानस्पतिक नाम जुग्लान रेजिया (Juglans Regia)


प्रयोज्य अंग फलपत्र


उत्पत्ति स्थान हिमालय व खासी की पहाड़ियां


उपयोग


1. इसके बीज पौष्टिक बल्य एवं पोषक है उसमें जीवनीय ए.बी.सी (Vit A.B.C)


2. इसके फल और पत्र कुमिन शोषय हैं।


3. इसका तेल मासिक धर्म संबंधी विकारों तथा विकारों में कारगर है।


4. इसके बीज मन व मूत्र है।


5. इसके लेप थक विकारों में लगाया जाता है।


8. इसमें कैंसर नाशक गुण पाये जाते है।


7. अखरोट के बीजों का तैल रफीत कृमि (Tape worm) नाशक है।




कमल


वानस्पतिक नाम • Aghean aukeratan (Nelumbium speciosum)


प्रयोज्य अंग फल, मूल, पुष्पबीज


उत्पत्ति स्थान समस्त भारत वर्ष में तालाबों में


उपयोग



1. यह दाह, मूत्र संबंधी व्याधियों मानसिक रोगों की उत्तम औषधि है।


2. इसकी पत्तियों को अतिसार लू लगने यमन में प्रयोग करते हैं।


3. यह त्वक रोगों में भी कारगर है।


4. इसकी पत्तियाँ और फूल अर्श तथा तसा सम्बन्धी रोगों में लाभकर है।


5. यह हृदय बल्य है तथा हृदय संरक्षण करता है।




खसखस (भारत)


वानस्पतिक नाम माणावर सोम्निफेरम (Papavar Somniferum)


प्रयोज्य अंग बीज. पुष्प


उत्पत्ति स्थान भारत वर्ष में 1500 मीटर से 2100 मीटर की ऊँचाई तक पाया जाता है।


उपयोग


1. संधिशोध या शरीर के अन्य मामों के शोध या पीड़ा में इसका लेप करते हैं। 2 यह वेदनाशामक होने के साथ-साथ निद्राजनन भी है।


3 आदोपहर होने के कारण अपरमार, कम्पवात मनुस्तंभ में प्रयोग किया जाता


4. शूलप्रशमन व स्तम्भन होने से उदरशूल व अतिसार में लाभकर है।


5. यह मदकारक है।




पिप्पली


वानस्पतिक नाम पाइपर लेगम (Piper longum)


प्रयोज्य अंग फल, मूल


उत्पत्ति स्थान - भारत के उष्ण प्रदेशों जैसे बंगाल बिहार आसाम में मिलता है।


उपयोग


1. शोधयुक्त वेदना को शान्त करने के लिए इसका लेप किया जाता है।


2. यह अरुचि, अग्निमांद्य, अजीर्ण, विबा गुल्म उदरशूल में प्रयुक्त होता है।


3. शुकदौर्बल्य रजोरोध और कष्ट प्रसव में लाभकारी है।


4. जीर्णज्वर में गुरु के साथ इसका चूर्ण लाभकर है।




अनार


वानस्पतिक नाम- प्यूनिका ग्रेनेटम (Punica granatum)


प्रयोज्य अंग - फल, फल


उत्पत्ति स्थान - भारत


उपयोग


सम्पूर्ण भारत वर्ष


1. यह कई रोगों की कारगर औषधि है। इसके रस से रक्त के कोलेस्ट्रॉल को मांच्या नियंत्रित होती है।


2. इसकी छाल के काढ़े से मुख व कण्ठ रोगों में गरारे करते है।



3. इसके फलों से उबर के उपद्रय शान्त होकर रोगी के बल में वृद्धि होती है।


4. इसके फलों में एन्टीऑक्सीडेन्ट पाये जाते है जो शरीर में कैंसर से लड़ने की शक्ति पैदा करते है।




गुलाब


वानस्पतिक नाम रोजिया ऐण्टिफोलिया (Rosea centifolia)


प्रयोज्य अंग पुष्प दल तेल


उत्पत्ति स्थान सम्पूर्ण भारत वर्ष


उपयोग


1. यह उच्चरक्तचाप, अतिसार, कष्टार्तव पर अनि में लाभकारी है।


2 त्वक विकारों में इसका चूर्ण या लेप लगाते हैं।


3 यह पाचनविकार तथा विबन्ध में उपयोगी है।


4. रक्तपित्त हृदयरोग तथा चौर्बल्य में प्रयोग किया जाता है।




सफेद मूसली


वानस्पतिक नाम


arundenaceum)


प्रयोज्य अंग कन्द


उत्पत्ति स्थान पश्चिमी हिमालय में 5300 फीट तक


उपयोग


1. यह वृश्य एवं है अतः दोर्बल्य कृशता में प्रयोग किया जाता है।


2. इसके सेवन से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि होती है।




रीठा


वानस्पतिक नाम- सपिन्ड म्यूकोरोसी (Sapindus mukorossi)


प्रयोज्य अंग फल


उत्पत्ति स्थान सम्पूर्ण भारत


उपयोग


1. यह विशेष रूप से साबुन व शैंपू बनाने के लिए प्रयोग किया जाता है।


क्लोरोफाइटम एकण्डिनेसियम (Chlorophytum


2. यह शोहर वेदना स्थापन विधान तथा कुष्ठ है।


3 कफनिसारक गर्भाशय संकोचक तथा कुष्ठान है।


4. इसके फल के चूर्ण का स्वतंत्रक तथा श्वास में देते है।



शंखपुष्पी


वानस्पतिक नाम adigere arranfire (Convolvulus Pluricaulis)


प्रयोज्य अंग पंचांग


उत्पत्ति स्थान सम्पूर्ण भारत वर्ष


उपयोग


1. यह मेध्य तथा नाड़ियों के लिए बलप्रय है। यह निवाजनग भी है।


2. यह शीतवीर्य होने से रक्तस्तमक है तथा उच्च रक्तचाप को कम करती है।


13 यह मूत्र विरेचनीय दृष्य तथा प्रजास्थापन है।


4. यह रक्तदमन की अद्वितीय औषधि है।


5. यह शुदौर्बल्य तथा गर्भाशय दौर्बल्य की प्रशस्त औषध है।



गुडुची 


वानस्पतिक नाम टिनिरपोश कार्डिफोलिया (Tinospora Cordifolia)


प्रयोज्य अंग काण्ड


उत्पत्ति स्थान उत्तर और दक्षिण भारत


उपयोग


1. यह त्रिदोष शामक है के साथ शरा के साथ तथा मधु के साथ कफ विकारों में दिया जाता है।

2. कुष्ठ वातरक्त में इससे सिद्ध घृत का प्रयोग किया जाता है।


3. इसका सत्य जार्ण ज्वर तथा चाह में प्रयोग करते है। यह भी है।


4. दीर्बल्य, क्षय में तथा रसायन कर्म में प्रयोग होता है।


5 इसे मूत्राश्मरी में भी प्रयोग करते हैं।




हरीतकी


वानस्पतिक नाम – टर्मिनेलिया चेबुला (Terminalia Chebula)


प्रयोज्य अंग - फल व


उत्पत्ति स्थान सम्पूर्ण भारतवर्ष


उपयोग


1. इसका लेप शोधहरवेदनास्थापन, शोधन व रोपण है। 2. यह दीपन, पाचन, यदुत्तेजक मृदुरेचन है।


3. यह दृश्य गर्भाशय शोपहर तथा प्रजास्थापन है।


4. इसके ज्वाध से मुख तथा गले के रोगों में कुल्ला करते है।


5 कोष्ठ शोधन के लिए हरीतकी सर्वश्रेष्ठ द्रव्य है।


6. शुक्रमेह, श्वेतप्रदर तथा गर्भाशय दौर्बल्य में प्रयुक्त होता है।


7. इसका चूर्ण सोठ के साथ मिलाकर गर्म पानी के साथ सेवन करने से हक्का में लाभकर है।




बहेड़ा


वानस्पतिक नाम - टर्मिनेलिया बेलेरिका (Terminalia belerica)


प्रयोज्य अंग फल


उत्पत्ति स्थान सम्पूर्ण भारतवर्ष


उपयोग


1. शोथ वेदना युक्त स्थानों में इसके फल का लेप करते हैं। 2. इसका तेल चर्मरोगों, शिवत्र पालित्य में प्रयोग किया जाता है।


3. उसे भूनकर प्रयोग करने से पोध तथा श्वास में फायदा मिलता


4. वातव्या अनिद्रा में इसकी मज्जा का प्रयोग करते हैं।


5. अभिष्यद में इसके फल का लेप नेत्र पर लगाते हैं।


8. इससे सिद्ध तेल खालित्य, पालित्य में प्रयोग में लाते हैं।


7 इसके अर्धपक्य फल विबन्ध में तथा पक्य शुष्क फल अतिसार प्रणाहिका में देते हैं।




आंवला


एम्लिका ऑफिसिनेलिस (Emblica officinalis)


वानस्पतिक नाम


प्रयोज्य अंग


उत्पत्ति स्थान उत्तरी तथा दक्षिण पश्चिमी भारत


उपयोग


1. यह विटामिन सी का सर्वोत्तम वानस्पतिको यह स्कर्दी रोग में


शर्करा व दूध के साथ प्रयोग कराये जाने पर लाभदायक परिणाम देता है।


2. यह हृदय के लिए बल्य है शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है।


3. यह एक उत्तम रसायन है मधुमेह में भी लाकर परिणाम दिखाता है।


4. बलों के लिए लाभकारी है तथा बालों को सफेद होने तथा झड़ने से रोकता है।


5. शुक्रमेह प्रदर तथा गर्भाशय दौर्बल्य में उपयोगी है।


6. इसके फल का चूर्ण दृष्टिमा अरूचि अम्लपित परिणामशूल उदररोग, प्रमेह तथा अरों में लाभकर है।




जामुन


वानस्पतिक नाम – निजीजियम क्यूमिना (Syzygium cumini)


प्रयोज्य अंग छान फल, बीज, पत्र


उत्पत्ति स्थान सम्पूर्ण भारतवर्ष


उपयोग


1. इसकी छाल व फल उत्तम मधुमेह नाशक है।


2. रक्तस्राव होने पर तथा व्रणों पर इसकी छाल का अवघूर्णन करते हैं।


३. इसके पत्र का चूर्ण मसूड़ों को मजबूत बनाने के लिये देते हैं। कोमल पत्र वगन में प्रयुक्त होते हैं।


4. इसके बीज का चूर्ण रक्तप्रदर रक्तातिसार में देते हैं।


5. इसकी छाल व बीजों का क्या अरुचि नाशक, मूत्रल पाचक तथा कृमिघ्न है।




बेल


वानस्पतिक नाम एजिल मार्गलोरा (Aegle marmelos)


प्रयोज्य अंग मूल स्वक, पत्र, फल



उत्पत्ति स्थान सम्पूर्ण भारत वर्ष में 4000 फीट की ऊँचाई तक मिलता है।


उपयोग


1. नेत्रामिष्यद में पत्र का स्वरस नेत्र में डालते है तथा पत्तियों का लेप लगाते


2. इसका मूल वातव्याधि आक्षेपक, उन्माद, अनिदा में प्रयुक्त होता है।


3. मूलत्वक तथा फल चूर्ण अहसार प्रवाहिका तथा ग्रहणी में प्रयुक्त होता है।


4.यह गर्भाशय शतप्रदर तथा सूतिका रोग को दूर करता है।


5. इसके पत्र का क्या अम्लपिता तथा मूलकण दरोगों में जानकर है।




अजवाइन


मानस्पतिक नाम ट्रेकीस्पर्मम अम्मी (Trachyspermum ammi)


प्रयोज्य अंग बीज


उत्पत्ति स्थान मध्य प्रदेश, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात


उपयोग

1. यह कफवात विकारों में प्रयुक्त होता है।


2. इसका लेप या तेल का अभ्यंग शोथ वेदनायुक्त विकारों में करते हैं। मान


में लेप या पोटली बना कर सकते हैं।


3 जी का श्वास में इसका चूर्ण देते है।


4. मूत्राघात कष्टातय तथा सूतिकारोग में उपयोगी है।


5. यह त्वक दोषों में प्रयुक्त होता है।


6. उद्देष्टन रोधी होने से उदर शूल में लाभकारी है अजीर्ण से उत्पन्न विकारों में अजवायन चूर्ण एवं सेवानमक मिलाकर देने से लाभ होता है।


सॉफ


वानस्पतिक नाम फिनिक्यूलम वलगेरी (foeniculum Vulgare)


प्रयोज्य अंग बीज


उत्पत्ति स्थान सम्पूर्ण भारतवर्ष


उपयोग


1. बमन, तृष्णा, अजीर्ण, उदरशूल व प्रवाहिका में प्रयोग किया जाता है।


2. यह श्वास का मूत्राघात मूत्रकृच्छ में लाभकर है।


3 स्तन्याल्पता में तथा शु वृद्धि के लिए प्रयुक्त होता है।




हल्दी


वानस्पतिक नाम कुरकुमा लोगा (Curcuma longa)


प्रयोज्य अंग मूल


उत्पतित स्थान सम्पूर्ण भारतवर्ष


उपयोग


1. आमवात, शोध वेदना तथा चप वाले स्थानों पर लेप किया जाता है।


2. अरूचि विबन्ध कामला, जलोदर व कृमि में प्रयोग किया जाता है।


३. शीतपित्त की उत्तम औषधि है।


4. प्रसवोत्तर विकार तथा साम्यविकारों शुक्रमेह में लाभकर है।


5 जीर्ण ज्वर कुष्ठ व दौर्बल्य में उपयोगी है।



हींग


चानस्पतिक नाम – कॅरूला नारोक्स (Ferula nartherx)


प्रयोज्य अंग निर्यास


उत्पति स्थान भारत में कश्मीर अफगानिस्तान फारस


उपयोग


1. यह दीपन पाचन एवं वातानुलोमक है। आध्मान एवं उदर मूल में इसका उपयोग करते हैं।


2. आध्मान में उदर पर लेप करते हैं। खास काम में छाती पर लेप करते है।


3 कृष्छ में तथा प्रसव के बाद देने से गर्भाशय शुद्ध होता है।


4 मूत्राघात विमर तथा कण्डु में लाभप्रद है।





लौंग 


नाम - कारियोफाल एसेमेटिक (Caryophyllus aromaticus)


प्रयोज्य अंग फली


उत्पत्ति स्थान दक्षिण भारत


उपयोग


1. शिरशूल तथा प्रतिश्याय में ललाट पर इसका लेप लगाते हैं।


2 मुख व फण्ठरोगों में घूसते है दाँत दर्द में इसका लेप लाभदायक है।


3. अरुचि, अग्निमांद्य, उदरशूल, अम्लपित में लाभदायक है।


4. यह शुक्ररतम्भन है। सतन्यवृद्धि और तम्यशोधन के लिए उपयोगी है।


5. मूत्रकुच्छ, चर्मरागों तथा प्वर में लाभदायक है।



मेथी


वानस्पतिक नाम ट्राइगोनेल्ला फोएनम् (Triganella foenum graecum)


प्रयोज्य अंग पत्र बीज


उत्पत्ति स्थान सम्पूर्ण भारतवर्ष


उपयोग


1. वातशामक है पर शोध विधि में इसे पीसकर गर्म लेप लगाते है।


2. नाडीदौर्बल्य अग्निमांद्य, शूल में चूर्ण प्रयोग करते हैं।



3 प्रसव के बाद स्तन्यवृद्धि के लिए प्रयोग किया जाता है।


4. दौर्बल्य में भी लाभकर है।



धनिया


वानस्पतिक नाम - कॅरिएण्डरसटाइवम् (Coriander Sativum)


प्रयोज्य अंग बीज और पत्र


उत्पत्ति स्थान सम्पूर्ण भारतवर्ष


उपयोग


1. मुखपाक व गले के रोगों में इसके रस का मजूष करते है। नासागत रक्त में इसका नस्य देते हैं।


2. इसका क्षीरपाक भ्रम मूर्च्छा स्मृतिहास में जानकर है।


3. मूत्रकृच्छ प्रमेह तथा ज्वर में लाभदायक है।





कालीमिर्च


वानस्पतिक नाम - पाइपर नाइग्रम (Piper nigrum)


प्रयोज्य अंग बीज


उत्पत्ति स्थान दक्षिण भारत


उपयोग


1. कफवातजन्य विकारों में लाभकर है।


2. दौत्य हृदय में उपयोगी है।


3. कुछ जोरोध में आकर है।


4 प्रतिश्याय, कास, श्वास में उपयोगी है।


5. कुष्ठ, चर्मरोगों में लेप करते हैं।


6 शीतज्वर में इसका प्रयोग कर है।